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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ०१ सु०१ द्वीन्द्रियनामकप्रथमोद्देशनिरूपणम् ४९१ जीवा संवेदयन्त्येव इष्टानिष्टशब्दादिका नित्याशये नाह-' पडिसंवेदेति पुणते' मतिसंवेदयन्ति पुनस्ते इति । 'ते गं भंते | जीवा' ते पञ्चेन्द्रियाः खलु भदन्त । जीवाः 'किं पाणाइवाए उवक खाइज्नंति' किं पाणातिपाते उपाख्यान्ति-धातूनामनेकार्थत्वादुपतिष्ठन्तीत्यर्थः, उत्तरमाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'अत्थेगइया पाणाइवाए वि सन्त्येके जीवाः ये प्राणातिपातेऽपि 'उबक्खाइज्जति उपाख्यान्ति 'जाव मिच्छादसणसल्ले वि उपक्खाइज्जति यावत् मिथ्यादर्शनशल्येऽपि उपाख्यान्ति अत्र यावत्पदेन मृपावादादिमायामृषापर्यन्तानापोडशपापस्थानानां संग्रहो भवति, द्वयोः सूत्र एव गृहीतत्वात् । 'अत्थेगइया नो अभाव है फिर भी 'पडिसंवेदेति पुण ते' वे इष्टातिष्ट शब्दादिकों का प्रतिसंवेदन तो करते ही रहते हैं अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं___ 'ते ण भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइज्जति' हे भदन्त ! वे पञ्चेन्द्रिय जीव क्या प्राणातिपात में मौजूद रहते हैं-प्राणातिपातक्रिया करते हैं ? यहां 'उपाख्यान्ति' क्रिया का अर्थ 'धातुनामनेकार्थत्वात् ' के अनुसार उपस्थित रहते हैं-करते हैं ऐसा होता है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'अत्थेगड्या पाणाहवाए वि' हाँ गौतम ! कितनेक पञ्चेन्द्रिय जीव ऐसे होते हैं जो प्राणातिपातक्रिया में मौजूद रहते हैं या उसे करते हैं 'जाव मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइति' यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में भी मौजूद रहते हैं या उसे करते हैं यहां यावत्पद से मृषावादादि १६ पाप स्थानों का संग्रह हुआ है क्योंकि दो पापस्थान मूत्र में ही રીતે છે કે તેઓને ઈટ અનિષ્ટ શબ્દાદિકને સંવેદન કરવાવાળી સંજ્ઞા विगेरेना मला छे तो ५ 'पडिसंवेदेति पुण ते' तम्या ४८ मनिष्ट શબ્દાદિકેને અનુભવ–પ્રતિસંવેદન તે કરતા જ રહે છે. श्री गौतम स्वामी प्रसुन मे पूछे छे -'ते णं भंते ! जीवा कि पाणाइवाए उवक्खाइज्जति' 8 मग ते ५ यन्द्रिय । प्रायातिपातमा पतभान २ छे १ अर्थात् प्रातिपात ठिया रे छे ? महिया 'उपाख्यान्ति' से यापहने। 'धातूनामनेकार्थत्वात्' धातुनी मने म यता पाथी ये વચન અનુસાર ઉપસ્થિત રહે છે–કરે છે તે અર્થ થાય છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु छ ?-'अत्थेगइया पाणाइवाए वि' । गीतमा टमा પંચેન્દ્રિય જી એવા હોય છે કે જેઓ પ્રાણાતિપાત ક્રિયામાં त५२ २७ छ. अथवा प्रातिपात २ छे. 'जाव मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइज्जति' यावत् भियाइश नशस्यमा ५यु तत्५२ २ छ. અથવા મિથ્યાદર્શન શલ્ય કરે છે. અહિયાં યાવત્ પદથી મૃષાવાદ વિગેરે ૧૬ સેળ પાપસ્થાને ગ્રહણ કરાયા છે. કેમ કે એ પાપસ્થાન સત્રમાં બતાવી શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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