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________________ ३५६ भगवतीसूत्रे 'चम्मेदृदुहणमुष्टियसमाहयणिचियगत्तकाया न भण्णई' चर्मेष्टद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रकाया न भण्यते तत्र चर्मेष्टद्रुघणमुष्टिकादिकानि व्यायामक्रियायामुपकारीणि उपकरणानि एभिः समाहतानि व्यायाममवृत्तौ अतएव निचितानि च घनीभूतानि गात्राणि अंगानि यत्र स चर्मेष्टद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रकाया, एतद् विशेषगमत्र न वक्तव्यम् , स्त्रिया एतादृशविशेषणस्यासंभवात् 'सेसं तं चे। शेषं तदेव एतद्भिन्नं यत् यत् तत्र विशेषणं तत् सर्वमेव वक्तव्यं कियत्पर्यन्तं विशेषणं वक्तव्यं तत्राह-जाव निउणसिप्पोवगया' यावत् निपुणशिल्पोपगता मूक्ष्मशिल्पज्ञानसम्पन्नेति । अत्र यावत्पदसंग्राह्यः पाठो यथा'थिरगहत्थे दढपाणिपायपासपितरोरुारिणया, तलनमलजुगलपरिघणिभवाहू उरस्सबलसमण्यागया लंघणपवणजवणवायामसमत्था छेया दक्खा पतहा यह निपुण शिल्पोपगत हो उत्पन्न कला में कुशल हो इस पाठ के भीतर 'चम्मेद्वदुहणमुट्टियसमायणिचियगत्तकाया न भण्णइ' यह पाठ भी आया है, सो यह पाठ इस दासी के वर्णन करने में ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि स्त्रियों में इस प्रकार के व्यायाम क्रिया के साधक उपकरणों द्वारा पुष्ट गात्र होने का प्रायः अभाव सा रहा करता है। 'सेसं तं चेव' इस विशेषण के अतिरिक्त और जो २ विशेषण वहाँ पर हो वे सब यहां पर कह लेना चाहिये और ये सब विशेषण 'जाव निउणनिप्पोवगया' इस पाठ तक हैं इस विशेषण का अर्थ ऐसा है कि यह दासी सूक्ष्म शिल्पज्ञान से संपन्न थी यहां जो यावत्पद आया है उस से इस पाठ का यहां संग्रह हुओ है-'चिरग्गहत्थे, दढ़पाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणया तलजमलजुयलपरिघणिभवाहू उरस्सबलसमण्णागया लंघण. जय मडि सुधीर पाई अड ४२वे। ॥ ५४ी म४२ 'चम्मेद्वदुणमुट्टिय समायणिचियगत्तकाया न भण्णइ' या प्रमाणेन। ५.४ मावस छ त ५ मा દાસીને વર્ણનમાં ગ્રહણ કરવાનું નથી. કેમ કે સ્ત્રિમાં આ રીતના વ્યાયામ કિયાને સાધક ઉપકરણથી શરીરના અવયવે પુષ્ટ કરવાને અભાવ હોય છે. 'सेसं तं चेव' । विशेषणे। शिवायना भी २ विशेष। त्यो य त तमाम महियां सम सेवा. मन त विशेष 'जाव निउणसिप्पोवगया' આ પાઠ સુધી ગ્રહણ કરવાના છે. આ વિશેષણને અર્થ એ પ્રમાણે છે કે –આ દાસી સૂક્ષ્મ શિલ્પ જ્ઞાન વાળી હતી. અહિયાં જે યાવત્પદ આપેલ છે, तनाथी नाय प्रमाणे पाठ मडियां ७५ ४२।। छे. 'थिरग्गहत्थे, दढ पाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणया तलजमलजुयलपरिघणिभवाहू उरस्स बलसम શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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