SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सू०५ वस्तुतत्वनिरूपणम् २६९ महावीरं वंदइ नमंसह" ततः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति 'जहा खंदओ' यथा स्कन्दका बन्दननमस्कारादिकं सर्वमपि स्कन्दकवदेव करोति अत्र द्वितीयशतकपथमोद्देशकमरूपितं स्कन्दकपकरणमनुस्मरणीयम् कियत्पर्यन्तं स्कन्दकपकरणम् इह अध्येतव्यम् ? तत्राह-'जाव से इत्यादि । 'जाव से जहेयं तुझे वदह' यावत् तत् यथेदं यूयं वदय एतत्पर्यन्त स्कन्दकमकरणं ज्ञातव्यम् । 'जहा पं देवाणुप्पियाणं अंतिए वहवे राईसर०' यथा खलु देवानु मियाणामन्तिके बहवो राजेश्वरतलवरमाडम्बिककौटुम्बिकेभ्यश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतयः मुण्डा भूत्वा अगारादनगारितां प्रबजिताः, किन्तु नाई तथा कर्तुं शक्नोमि किन्तु अहं तु देवानुप्रियाणामन्तिके पश्चानुव्रतादियुक्तं द्वाद. वंदह नमसइ 'श्रमण भगवान महावीर के वन्दना की नमस्कार किया 'जहा खंदओ' जैसा बदन नमस्कार आदि स्कन्दक ने किया था वैसा ही इसने किया स्कन्दक का प्रकरण द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में प्ररूपित किया गया है सो वह सब प्रकरण 'जाव से जहेयं तुज्झे बदह' इस मूत्र तक का कथन यहाँ ग्रहण कर कह लेना चाहिये तात्पर्य इस प्रकरण का ऐसा है कि हे भदन्त ! जैसा आप कहते हैं, बात तो वैसी ही है, परन्तु 'जहा णं देवानुप्पियाणं अंतिए यहवे राईसर०' जिस प्रकार से आप देवानुप्रिय के पास अनेक राजेश्वर तलवर माडम्षिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि मुण्डित होकर अगारा. वस्था से अनगारावस्था को धारण कर चुके हैं वैसी अवस्था में धारण करने के लिये समर्थ नहीं हूँ मैं तो आप देवानुप्रिय के पास पंच अणु तेथे श्रद्धा युद्धत यन 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ' श्रम भगवान् भडावीर स्वामीन ना ४, नमः॥२ ४ा-'जहा खंदओ' २४ का રીતે વંદના નમસ્કાર કર્યા હતા તે જ પ્રમાણે આ સમિલે પણ વદન નમસ્કાર કર્યા, કંદકનું પ્રકરણ બીજા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં પ્રરૂપિત કરેલ છે. તે તમામ પ્રકરણ અહિયાં સમજી લેવું. આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે હે मापन भा५ २ प्रभाये । छौ, ते प्रमाणे छे. ५२'तु 'जहा गं देवाणु प्पियाणं अंतिए बहवे राइसर०' ले प्रमाणे मा५ हेवानुप्रियनी पासे अने। રાજેશ્વર તલવર, માડમ્બિક, કૌટુમ્બિક, ઈભ્ય, શ્રેણી, સેનાપતિ અને સાર્થવાહ. વિગેરે મુંડિત થઈને અગાર અવસ્થાથી અનગાર અવસ્થાને સ્વીકારી ચૂકયા છે. તેવી જ અવસ્થા હું સ્વીકારવા સમર્થ નથી. હું તે આપ દેવાનુપ્રિય શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy