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________________ २६४ भगवतीस्त्र 'से केणढेग' इत्यादि ‘से केगडेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव भविए वि अहं' तत् केनाथैन भदन्त ! एवमुच्यते यावत् भव्योऽप्यहम् अत्र यावत्पदेन 'एगे वि अहं' इत्यारभ्य "अणेगभूयभाव' इत्यन्तस्य ग्रहणं भवति । भगवानाह-'सोमिला' इत्यादि । 'सोमिला' हे सोमिल ! 'दब्वट्ठयाए एगे वि अहं' द्रव्यार्थतया एकोऽप्यहम् हे सोमिल ! जीवद्रव्यस्यैकत्वेन एकोऽहम् न तु प्रदेशार्थतया एकोऽहम् तथा चानेकत्वात् ममेत्यवयवादीनामनेकत्वोपलम्भो न बाधको भवति यथा पृथिव्यादि भेदेन द्रव्याणामनेकत्वेऽपि सकलद्रव्यानुगतद्रव्यत्वधर्म पुरस्कृत्य द्रव्यमित्याकारकमयोगो नानुपपन्नः तथा जीवपदेशानामनेकत्वेऽपि जीवस्वरूपद्रव्यैफत्वमादाय एकोऽहमिति प्रयोगो नानुपपन्नोऽपि तु उपपद्यते एवेतिभावः, तथा पूछता है कि-'से केणढणं' इत्यादि हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि मैं यावत् भविष्यकालीन अनेक परिणामोंवाला भी हूँ यहां यावत्पद से 'एगे वि अहं' इस पाठ से लेकर 'अणेगभूयभाव' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है इस सोमिल के प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'मोमिला ! दबट्टयाए एगे वि अहं' हे सोमिल ! मैं एक भी हूँ ऐसा जो मैंने कहा है वह जीवद्रव्य की एकता को लेकर कहा है प्रदेशार्थता को लेकर ऐसा नहीं कहा है इस एकत्व बाधक अव्यवादिकों की अनेकना का उपलम्भ नहीं होना है क्योंकि जैसे पृथिवी आदिके भेद से द्रव्य में अनेकता होने पर भी सकलद्रव्यानुगत द्रव्य एक है इस प्रकार का कथन वहां बाधक नहीं होता है उसी प्रकार से जीव के प्रदेशों में अनेकता होने पर भी जीवत्वरूप द्रव्य की एकता को लेकर मैं एक हूँ तम सभ७२ प्रभुने मा प्रभाये ५७11 सायो. से केणद्वेणं' त्याह है ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહે છે ? કે–ચાવતું ભવિષ્ય કાળ સંબંધી भने परिणामी वाणे ५६ छ. माडियां यावत् ५४थी 'एगे वि अहं' । पा४ी बन 'अणेगभूय भाव' मा सुधानो या अ५ ४२राये। छ. सेभिताना 4. प्रश्न उत्तर ५i प्रभु । छ-'सोमिला! व्वयाए एगे वि अहं' હે મિલ હું એક છું તેમ મેં કહ્યું છે, તે જીવ દ્રવ્યની એકતાને લઈને કહ્યું છે. પ્રદેશાર્થતાને લઈને તેમ કહ્યું નથી. આ એકવને બોધ કરનાર અવયવાદિકેના અનેકપણાને ઉપલભ્ય થતું નથી. કેમ કે-જેમ પૃથ્વી વિગેરેના ભેદથી દ્રવ્યમાં અનેકપરું હોવાથી સકલ દ્રવ્યાનુગત છ દ્રવ્ય ધર્મની અપેક્ષાથી તે દ્રવ્ય એક છે, આ રીતનું કથન ત્યાં બાધક થતું નથી શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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