SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ भगवती सूत्रे भक्ष्याः - भक्षयितुं योग्याः उपभोग्या इत्यर्थः अभक्ष्या वा नोपभोगयोग्या वेति प्रश्नः, भगवानाह - " सोमिला " इत्यादि । "सोमिला " हे सोमिल ! " सरिसवा मे भक्या वि अभक्खेया वि" सरिसवया में भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपि सरिसवया इति पदं प्राकृतशैल्या द्वयर्थकम् एकत्र सदृशवयसः - समानवयस्काः अन्यत्र सर्षपका धान्यविशेषा इत्यर्थो भवति अर्थविशेषमाश्रित्य उपभोगयोग्या अपि इत्युत्तरम् । एकस्यैवोपभोगयोग्यश्वानुपभोगयोग्यत्वरूपविरुद्धधर्माश्रितत्वं मला पुनः पृच्छति - " से केणट्टेणं भंते!" तत् केनार्थेन भदन्त ! ' एवं बुच्चर सरिसवया में भक्वेया वि अभक्खेया वि' एवमुच्यते यत् सरिसत्रया में भक्ष्या अपि अमक्ष्या अपीति । अथार्थविशेषमाश्रित्य भक्ष्याभक्ष्यत्वयोरुभयोरपि विषये भगवानाह - ' से नूणं' इत्यादि । 'से नूर्णं या अभक्ष्य है ? अर्थात् 'सरिसव' आप के द्वारा खाने योग्य हैं या खाने योग्य नहीं हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं । 'सरिसवा में भक्खेया वि अभक्या वि' हे सोमिल ! 'सरिसव' मेरे द्वारा भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी हैं जब यह सरिसव शब्द धान्यविशेष का वाचक होता है तब तो वह सरिसव खाने योग्य भी है ऐसा प्रभु ने कहा है और जब यह शब्द सदृशवया मित्र का वाचक होता है, तब वह भक्ष्य खाने योग्य नहीं है ऐसा प्रभुने कहा है । जब 'सरिसव' यह एक ही शब्द है तब उसमें भक्ष्यता और अभक्ष्यता कैसे युगपत् संभवित होती है ? इस बात को मानकर सोमिल प्रभु से पूछता है । 'से केणद्वेगं भते ! एवं बुच्चइ०' हे भदन्त । ऐसा आप किस कारण को लेकर कह रहे हैं कि 'सरिसव' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? इस विषय में अर्थ विशेष को लेकर प्रभु भक्ष्य अभक्ष्य का 'सरिसव' --' सरिसवा में भक्या वि अभक्खेया वि०' हे सोभित 'सरिसव' लक्ष्य ખાવાલાયક પણ છે, અને અભક્ષ્ય ન ખાવાલાયક પણ છે. ‘સિરસવ’શબ્દ ધાન્ય વિશેષને વાચક થાય છે. ત્યારે ‘સિરસવ' ખાવા ચાગ્ય પણુ અને છે, સિરસવ' એ શબ્દ સમાનવય-મિત્રવાચક થાય છે ત્યારે તે અભક્ષ્ય ખાવા લાયક હાતા નથી. આ પ્રમાણે પ્રભુને ઉત્તર સાંભળીને જ્યારે ‘સરિસવ' એ એક જ શબ્દ છે, તે તેમાં એક સાથે ભયપણુ અને અભક્ષ્યપણું કેવી રીતે સ‘ભવી શકે ? તેમ વિચારીને સેામિલ ફરીથી પ્રભુને એવુ’પૂછે छे--' से केणट्ठेण' भंते! एवं वुच्चइ' हे भगवन् याय येवु शा आरो કહેા છે કે--‘સરસવ' ભક્ષ્ય પણ છે, અને અભક્ષ્ય પણ છે ? આ વિષયમાં અ વિશેષને લઈને પ્રભુ ‘સરિસવમાં' ભક્ષ્ય અભક્ષ્યપણાનું પ્રતિપાદન શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy