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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सू०२ अ० पर्यायान्तरेणपुद्गलादिषुनि० २१९ ज्ञातव्यश्च, यावत् असंख्यातपदेशिकोऽवयवी वायुना व्याप्यते न तु कदापि असंख्यातमदेशिकावयविना वायुकायो व्याप्यते इति । अत्र त्रिपदेशिकादारभ्य दशमदेशिकसंख्यातमदेशिकान्तस्य यावत्पदेन ग्रहणं भवति । 'अर्णतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउकाय पुच्छा' अनन्तप्रदेशिकः खलु भदन्त ! स्कन्धः वायुकायः पृच्छा अर्थात् अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः वायुना व्याप्यते अथवा अनन्तमदेशिकेन स्कन्धेन वायु ाप्यते इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणंतपएसिए खंधे वायुकारणं फुडे' अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः वायुकायेन स्पृष्टोव्याप्तः मध्ये निक्षिप्तः 'वाउकाए अर्णतपएसिए णं खंधेणं सियफुडे' वायुकाय: अनन्तमदेशिकेन स्कन्धेन स्यात् स्पृष्टः 'सिय नो फुडे' स्यात् नो स्पृष्टः, अनको वायुकाय द्वारा व्याप्त होने का विचार जानना चाहिये यावत् असंख्यातप्रदेशी रूप अवयवी वायुकाय के द्वारा व्याप्त तो हो जाता है पर वायुकाय उस असंख्यातप्रदेशी अवयवी द्वारा व्याप्त नहीं होता है। यहां यावत्पद से त्रिप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर कर दशप्रदेशिक स्कन्ध संख्यातप्रदेशी स्कन्ध का ग्रहण हुआ' है। अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउ० पुच्छा!" हे भदन्त ! जो स्कन्ध अनन्तप्रदेशिक होता है। उसके द्वारा वायुकाय व्याप्त होता है या वायुकाय के द्वारा वह व्याप्त होता है, उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अनन्तपएसिए खंधे०' हे गौतम ! जो अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध होता है। वह वायुकाय के द्वारा व्याप्त होता है मध्य में निक्षिप्त होता है पर जो अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध है उसके द्वारा वायुकाय व्याप्त भी होता है, હેવાના સંબંધમાં વિચાર સમજી લે. યાવત્ અસંખ્યાત પ્રદેશી રૂપ અવયવી વાયુકાયથી તે વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. વાયુકાય તે અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા અવયવીથી વ્યાપ્ત થતો નથી. અહિયાં યાવત્પદથી ત્રણ પ્રદેશવાળા સ્કષથી भारभार ४स प्रशाणा २४५ सुधी अ यया छे. "अणंतपएसिए णं भंते ! खघे वाउ पुच्छा०” 8 सन् सनत प्रदेश २ २४५ छ, તેનાથી વાયુકાય વ્યાપ્ત થાય છે? અથવા વાયુકાયથી તે વ્યાપ્ત થાય છે. આ प्रश्रना उत्तम प्रभु छ है-गोयमा ! अनंतपएसिए खंघे०" गीतम! અનંત પ્રદેશવાળા જે કંધે હોય છે, તે વાયુકાય દ્વારા વ્યાપ્ત થાય છે. મધ્યમા નિક્ષિપ્ત હોય છે. પરંતુ જે અનંતપ્રદેશ સ્કંધ છે, તેનાથી વાયુકાય વ્યાપ્ત થાય છે પણ ખરા. અને નથી પણ થતા. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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