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भगवती सूत्रे
खलु यूयम् तेन कारणेन भवन्तः 'पाणे पेच्चेमाणा' प्राणान् आक्रमन्त जाव उचमाणा तिविह जाव एंगतवाला यावि भवः' यावदुपद्रवन्तः त्रिविधेन यावत् एकान्तबालाश्चापि भवथ यस्मात्कारणात् मार्गपटन्तो भवन्तः प्राणान् विनाशयन्ति तस्मात् यूयमेव प्राणानां विनाशकत्वात् असंयता एकान्तबालाश्चापि भवथ, इस प्रकार का आप लोगों का जीवों के प्रति होता हुआ यह व्यवहार आप लोगों में त्रिविध त्रिविध से असंयतपने को ही प्रकट करता है । अतः आप लोग एकान्ततः बाल ही है यहां 'जाव एगंतबाला यावि भवह' में जो यावत्पद आया है उससे 'असंजय' आदि पदों का ग्रहण होता है । जिस कारण से आप लोग गमन समय में प्राणियों को मारते हो इस कारण से आप लोग त्रिविध विविध से असंगत है । और एकान्तबाल भी हैं ऐसा हमलोग कहते हैं। इस प्रकार जब अन्ययूथिकों ने गौतम से कहा तब उनके इस आक्षेप के परिहार निमित्त गौतम ने उनसे इस प्रकार कहा- हे आर्यों ! जब हम लोग गमन करते हैं । तब उस समय प्राणियों को नहीं मारते हैं यावत् उन्हें जीवित से व्यपरोपित नहीं करते हैं यहां यावत् पदसे 'अभिहन्मः आज्ञापयामः परिगृह्वीमः परितापयामः इन पदों का ग्रहण हुआ है। इसी बात का गौतम ने 'अम्हे अज्जो ।' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट किया है । इसमें यह कहा गया है कि हम लोग जो गमन करते हैं वह देह के सहारे से करते हैं । यदि गमन के योग्य देह हैं अर्थात् गमन क्रिया में
ત્રિકરણ ત્રિચેાગથી અસયતપણાને જ પ્રગટ કરે છે. જેથી આપ જ એકાન્ત मात छो. मडियां " जाव एंगतवाला यावि भवह" या वाड्यमां ने यावत्यह छे, तेनाथी "असंजय” विगेरे हो श्रद्धलु उराया है. साथ बोर्ड अभनागभन સમયે પ્રાણિયાને મારા છે, તેથી આપ લેાકેા ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેાગથી અસયત છે. અને એકાન્તમાલપણુ છે.. એ પ્રમાણે અમે કહીએ છીએ. આ રીતે જ્યારે અન્યયૂથિકાએ ભગવાન્ ગૌતમસ્વામીને કહ્યુ' ત્યારે તેઓ ના આ આક્ષેપના નિવારણુ માટે ગૌતમ સ્વામીએ તેઓને આ પ્રમાણે કહ્યું —કે હું આર્યાં? અમે જ્યારે આવ જાવ કરીએ છીએ ત્યારે તે સમયે અમે પ્રાણિયાને મારતા નથી. યાવત્ તેઓને જીવનથી વ્યપરાપિત~~ --अलग उरता नथी. मडियां यावत्पथी "अभिहन्मः आज्ञापयामः परिगृह्नीमः, परितापयामः, या होना संग्रह थयो छे, मानवात गौतम स्वाभीये "अम्हे णं अज्जो !" ઇત્યાદિ સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરી છે. તેમાં એમ કહ્યુ છે કે—અમે જે
આવ જાવ કરીએ છીએ તે શરીરની સહાયથી કરીએ છીએ. જો શરીરગમન કરવા ચૈાગ્ય હાય અર્થાત્ ગમન કરવામાં શક્તિવાળું શરીર હાય, તા જ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩