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________________ १२६ भगवतीसूत्रे 'तिकडेइति कृत्वा एवं रूपेणेत्यर्थः तेणं अन्नउस्थिए एवं पडिहणइ तान् खलु अन्ययूथिकान् एवं-यथोक्तमकारेण पतिहन्ति पराभवति मद्रुकः 'एवं पडिहणित्ता' एवं यथोक्तक्रमेण परान् प्रतिहत्य-पराभूय' जेणेव गुणसिलए चेइए' यत्रैव गुणशिलकं चैत्यम् । 'जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान महा. वीरः 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैव उपागच्छति' उवागच्छित्ता उपागत्य 'समणं भगवं महावीरं ' श्रमणं भगवन्तं महावीरम् 'पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवा. सई' पञ्चविधेन-पश्चपकारेण अभिगमेन यावत् पर्युपास्ते यावत्पदेन वन्दननमस्कारादीनां ग्रहणं भवतीति, मदुयाइ समणे भगवं महावीरे' हे मद्रुक ! इति श्रमणोभगवान् महावीरः, हे मद्रुक ! इत्येवं रूपेण मद्रुकं संबोध्य श्रमणो भगवान् महावीरः 'मद्दुयं समणोवासयं एवं वयासी' मदुकं श्रमणोपासकम् एवंऐसा कथन तो ठीक नहीं माना जा सकता । 'त्ति कटु तेणं अन्नउस्थिए एवं पडिहणह' इस प्रकार के युक्ति पूर्ण कथन से मर्दुक श्रावकने उन अन्ययूथिकों को परास्त कर दिया। ‘एवं पडिहणित्ता जेणेव गुगसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह और परास्त करके वह जहां गुणशिलक उद्यान था, और उसमें भी जहां श्रमण भगवान महावीर थे वहां पर आया। 'उवागच्छित्ता' वहाँ आकरके उसने 'समणं भाव महावीर' उसने श्रमण भगवान महावीर को 'पंचविदेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासह' पाँच प्रकार के अभिगम से यावत् पर्युपासना की यहां यावत्पद से वन्दना नमस्कार आदि पदों का ग्रहण हुआ है। 'मदुयाई समणे भगवं महावीरे' हे मद्रुक ! इस प्रकार से सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीरने 'मददुयं समणोवासयं एवं शत यो२५ भानी शय नडि. “तिकट्ठ तेणं अन्नउत्थिए एवं पडिहणइ" આ રીતે યુક્તિ યુક્ત કથનથી મદુક શ્રાવકે તે અન્યમૂથિકોને પરાજીત કર્યા. "एवं पडिहणित्ता जेणेव गुणखिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे टेणेष વલાદ” આ રીતે તે અન્યયુથિકોને પરાજીત કર્યા પછી તે મક્ક શ્રાવક જ્યાં सगवान महावीर स्वामी १२०/मान &त्यात माव्य.. "उवागच्छित्ता" त्यां मावीन तो "समणं भगवं महावीरं" श्रम लगवान् महावीर साभान "पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासइ" पांय ४२ना मलिगमयी यावत्५युपासना 30 या१.५४थी बहन नभ७।२ विगैरे ५४ो घर थया छे. "मदु याइं समणे भगवं महावीरे" मे प्रमाणे समोधन ४शन श्रम जापान मडावी२ “मद्य समणोवासय एवं वयासी' ते ४ श्रावने શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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