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भगवती सूत्रे
बंधे भंते! कवि नत्ते' भाववन्धः खलु भइन्छ ! कतिविधः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः । 'मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते' माकन्दिकपुत्र ! द्विविधो भावबन्धः प्रज्ञप्तः, 'वं जहा' तद्यथा मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य' मूलप्रकृतिबन्धश्व उत्तरप्रकृतिबन्धव, तत्र भावेन मिध्यात्वादिना बन्धो जीवस्येति भावबन्धः, अथवा भावस्य उपयोगभावाव्यतिरेकात् जीवस्य बन्धी भावबन्धः स च द्विविधो मूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतिभेदादिति भावः । 'नेरयाणं भंते । कइविहे भावबंधे पन्नत्ते ' नैरयिकाणां भदन्त ! कतिविधो भावबन्धः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह - 'मागंदियपुता ! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते' हे माकन्दिकपुत्र ! द्विविधो भाववन्धः
मान्दिक पुत्रने प्रभु से ऐसा पूछा - 'भावबंधे० ' हे भदन्त ! भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है- 'मागंदियपुत्ता०' हे मान्दिकपुत्र ! भावयन्ध जो जीवों के रागादि भावों से होता है दो प्रकार कहा है । एक 'मूलपग०' मूलप्रकृतिबन्ध और दूसरा उत्तर प्रकृतिवन्ध मिथ्यात्वादि के निमित्त से जो जीव के साथ कर्म का बन्ध होता है वह भावबन्ध कहा गया है । अथवा उपयोगरूप भाव से अभिन्न होने के कारण जीव के भाव का बन्ध है, यह भावबंध मूल प्रकृति और उत्तरप्रकृति के भेद से दो प्रकार का होता है इनमें से हे भदन्त ! 'नेरइयाणं' नैरयिक जीवों के भावबन्ध कितने प्रकार का होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं । 'मागंदिय पुत्ता०' हे माकन्दिक पुत्र ! नारकजीवों के दोनों प्रकार का भावबन्ध होता है। मूलप्रकृतिरूप भावबन्ध
હવે ભાવખ ધના વિષયમાં કથન કરવામાં આવે છે. તેમાં માક પુિત્રે असुने गोवु पूछयु छे - भावबंधे० ' हे भगवन् लावणंध डेटा प्रहारनो उडेस छे ? तेना उत्तरमा प्रभु छे - मागंदिय पुत्ता !' डे भाऊहीपुत्र ! જીવાના રાગદ્વેષાદિથી જે બંધ થાય છે તે ભાવબંધ છે. તે ભાવખ"ધ એ પ્રકા२नो डेवामां आवे छे. 'मूलपग०' : भूजअतिगंध भने जीले उत्तर પ્રકૃતિબધ છે. મિથ્યાત્વ વિગેરેના નિમિત્તથી જીવની સાથે જે ક્રમના અધ થાય છે, તે ભાવખંધ કહેવાય છે. અથવા ઉપયાગ રૂપભાવથી જુઠ્ઠા ન હેાવાને કારણે જીવને જે ભાવના બંધ થાય છે, તે ભાવખધ છે. આ ભાવમ ધ भूसप्रति भने उत्तर अतिना लेडी मे प्रहारनो छे. तेमांथी 'नेरइयाणं० १ ૩ ભગવન્ નૈરિયક જીવેને કેટલા પ્રકારનેા ભાવભધ થાય છે? તેના उत्तरभां अलु म्हे छे है 'मागंदिय पुत्ता !' हे भाङत्रि ! नारम्भवाने मे પ્રકારના ભાવમધ થાય છે. નારકજીવ તે મૂલપકૃતિરૂપ ભાવબંધ थाय छे,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨