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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०३ सू०३ छद्मस्थविषये प्रश्नोत्तरम् ६७५ रेइ वा' अन्यत्वं वा नानात्व वा जानाति वा, पश्पति वा आहरति वा, अन्यत्वम्-अनगारद्वयसंवन्धिनो ये पुद्गला स्तेषां भेदम् , नानात्वम्-वर्णादिकृतं वा भेदमिति एवं जहा इंदिरउद्दे गए पढमे' एवं यथा इन्द्रियोद्देश के प्रथमे, एवं यथा-प्रज्ञापनामूत्रस्थपञ्चदशपदस्य प्रथमे इन्द्रियो देशके कथितं तथा भणितव्यम् विशेषस्वयम् प्रज्ञापनागतपकरणे 'गोयमा' इति संबोधनम् , अत्र च 'मार्गदियपुत्ते' इति संबोधनपदं भणितव्यम् । 'जाव वेमाणिया' यावद् वैमानिकाः, 'आणत्तं पुद्गलों के 'किंचि' क्या 'अण्णत्तं था णाणत्तं वा' अन्यत्व को या नानात्व को 'जाणइ वा पासइ था' जानता है या देखता है ? या उन्हे ग्रहण करता है ? जो अनगारों के निर्जरा पुद्गल हैं उन पुलों में जो भेद है वह नानात्व है अथवा उनमें जो वर्णादिकृत भेद है वह नानात्व है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं। 'एवं जहा इंदिय उद्देसए०' जैसा प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रिय उद्देशक में कहा गया है । उसी प्रकार यहां पर कह लेना चाहिये। यदि कोई विशेषता है वह केवल संबोधन को ही लेकर है। बाकी और कथन में कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् प्रज्ञापनागत प्रकरणमें 'गोयमा' ऐसा सम्बोधन पद है और यहां 'मागंदिपुत्ते' ऐप्सा संबोधन पद है । 'जाव वेमा. णिया' इसका तात्पर्य प्रज्ञापना प्रकरण के अनुसार ऐसा है-नारक से लेकर वैमानिकदेवपर्यन्त छद्मस्थजीव क्या निर्जरापुद्गलों के पोग्लाणं' नि२१ पुसान 'किचि अण्णत्त वा णाणात वा' शुभन्याय २ अथवा नानापने 'जाणइ पास' त छे १३४ ? अथवा त हर કરે છે? બે અનગારોના જે નિર્જરા પુદ્ગલ છે. તે પુણેમાં જે ભેદ છે. તે “નાના છે. અથવા તેમાં જે વર્ણ ગંધ રસપ વગેરે ભેદ છે, તે नानात्व छ. या प्रश्ना उत्तम प्रभु ४ छ ?- एवं जहा इंदियउसए०' प्रशायना सूत्रना ५४२मा पहना प न्द्रिय देशामा वाम આવ્યું છે તે જ રીતે અહિં પણ તે સઘળું કથન સમજવું. તેમાં જે વિશેષતા છે. તે સંબંધન પુરતી જ છે. બાકીના બીજા કથનમાં કંઈ જ વિશેષતા नथी. अर्थात् प्रज्ञापनाना ५४२६मा 'गोयमा' से प्रमाणे समाधन छ. सन मडिया 'माकंदियपुत्ते' को प्रमाणेनुं समाधन छ. अर्थात् प्रज्ञापनाना ४. રણમાં ગૌતમસ્વામીને ઉદ્દેશીને કથન કરાયેલ છે. અને અહિંયા માકંદીપુત્રને
शीन ४थन ४२पामा मा०यु छ. 'जाव वेमाणिया' ते प्रज्ञापन सूत्रनु ४२६४ યથાવત્ નારકથી આરંભીને વૈમાનિક પર્યન્ત ગ્રહણ કરવું. કહેવાનું તાત્પર્ય
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૨