SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 608
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९४ भगवतीसूत्रे यास्यन्तीति वचनप्रामाण्यात् कथितमिति, 'सेसटाणेसु जहा आहारओ' शेष. स्थानेषु यथा आहारकः शेषेषु नारकादिस्थानेषु स्याचरमः, स्यादचरमः यो मारकादिः पुनः संसारं न प्राप्स्यतिस चरमोऽन्यस्तु अचरम इति । 'अभवसिद्धिओ सम्वत्थ एगत्तपुहुत्तेणं नो चरिमे, अचरिमे' अभवसिद्धिकः सर्वत्र एकत्वपृथक्त्वेन नो चरमोऽचरमः, अभव्यः सर्वत्र जीवादिषदेषु नो चरमः अभव्यस्य भव्यत्वेना भावात् , 'नो भवसिद्धिय नो अभवसिद्धिए जीवे सिद्धे य एगत्तपत्तेणं जहा अभवसिद्धियो' नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिको जीवः सिद्धश्च एकरवपृथक्त्वेन यथा अभवसिद्धिकः, नो भवसिद्धिक नो अमवसिद्धिको जीवपदे सिद्धपदेचैकचरमता को प्राप्त कर लेता है-यह कथन 'सब भवसिद्धिक जीव सिद्धिको प्राप्त करेंगे इस वचन की प्रमाणता को लेकर कहा गया है। 'सेसहाणेसु जहा आहारओ' नारकादि शेषस्थानों में आहारक के जैसा कदाचित् वह चरम भी है और कदाचित् वह अचरम भी है। जो संसार को वह प्राप्त नहीं करेगा तो चरम है। और यदि प्राप्त करेगा तो अचरम है, 'अभवसिद्धिओ सव्वत्थ एगत्तपुहुत्तेणं नो चरिमे अचरिमे' अभवसिद्धिक जीव एकवचन बहुवचन में सर्वत्र चरम नहीं है अचरम है । अभव्य सर्वत्र जीवादि पदों में चरम नहीं है। क्योंकि अभव्य में भव्यरूपसे होने का अभाव है । 'नो भवसिद्धिय नो अभवसिद्धिए जीवे सिद्धे य एगत्तपुहुत्तेणं जहा अभवसिओ' नोभवसिद्धिक नो अभवसिद्धिक जीव जीवपद में और सिद्धपदमें एकवचन एवं बहुवचन को आश्रित करके अभवसिद्धिक के जैसा अचरम हैं क्योंकि ये सिद्धકરી લે છે. આ કથન “બધા જ ભવભવસિદ્ધિક જીવ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરશે” से क्यननी प्रभाताना साधारथी युछे. “से सदाणेसु जहा आहारओ" નારકાદિ બાકીના સ્થાનમાં આહારક પ્રમાણે કઈ વાર તે ચરમ પણ થાય છે અને કેઈવાર તે અચરમ પણ થાય છે જે તે સંસાર પ્રાપ્ત ન કરે તે यम छ भने ने ससार प्राप्त रे तो भयर छ. "अभवसिद्धिओ सव्वत्थ एगत्तपुहुत्तेणं नो चरिमे अचरिमे" मे क्यनथी मसिद्ध ७ ચરમ નથી પણ અચરમ જ છે. અભવ્ય બધે જીવાદિપદોમાં ચરમ નથી, भ समयमा १०या शतु नथी. 'नो भवसिद्धिय नो अभव सिद्धिए जीवे सिद्धेय एगत्तपुहुत्तणं जहा अभवसिद्धि ओ" ने सिद्धि मने ને અભવસિદ્ધિક જીવ, જીવપદમાં અને સિદ્ધપદમાં એકવચન અને બહુવચનથી અભવસિદ્ધિક પ્રમાણે અચરમ છે. કેમ કે તેઓ સિદ્ધ રૂપ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy