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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ ७०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे योगद्वारम् अथ दशमं योगद्वारमाह - " सजोगी" इत्यादि "सजोगी मणजोगी वयजोगी कायजोगी एगत्तपुहुतेण जहा आहारए" सयोगी मनोयोगी वचोयोगी काययोगी एकत्वपृथक्त्वेन यथा आहारकः, आहाकसूत्रवदिहापि बोद्धव्यम् नो प्रथमः किन्तु अथथम एव, अनादौ संसारे अनन्तशो योगानां प्राप्तत्वात् "नवरं जस्स जो जोगो अस्थि" नवरं यस्य यो योगोऽस्ति, यस्य नरकादे वस्य यो योगो विद्यते तस्यैव जीवस्य स योगो वक्तव्यो नान्यमत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, और विभङ्गज्ञानी एकवचन और बहुवचन में आहारक के जैसा अप्रथम ही होते हैं, प्रथम नहीं, क्योंकि अनादि संसार में अनेक बार सभेद अज्ञान का लाभ इस जीव को हो चुका है। नवव ज्ञानद्वार समाप्त इस १० वें योगद्वार में प्रभु कहते हैं कि-'सजोगी, मणजोगी, वय जोगी, कायजोगी एमत्तन्ते णं जहा आहारए' सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी, सब एकवचन को लेकर आहारक सूत्र के जैसा प्रथम नहीं हैं किन्तु अप्रथम ही हैं। क्योंकि अनादिसंसार में अनन्तवार योगों की प्राप्ति हो चुकी है । 'नवर' जस्स जो जोगो अस्थि' जिस नारकादि जीव को जो योग है उसको वही योग कहना चाहिये । अन्य को नहीं, इसी योग की अपेक्षा लेकर उसमें प्रथमता और અજ્ઞાની શ્રુત અજ્ઞાની અને વિભગજ્ઞાની એકવચન અને બહુવચનથી આહા. રક પ્રમાણે પ્રથમ છે. પ્રથમ નથી. કેમકે અનાદિસ’સારમાં અનેકવાર ભેદવાળા અજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ આ જીવને થઇ છે. ।। નવમું જ્ઞાનદ્વાર સમાપ્ત॥ ५७७ हसभु' योगद्वार- શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨ या शमां द्वारसां प्रभु जोगी, गहुत्ते णं जहा आहारए' કાયાગી, બધા એકવચન અને પ્રમાણે પ્રથમ હાતા નથી પરંતુ તે २मां तेथेने अनन्तवार योगोनी प्रति थ युडी छे. 'नवर' जस्स जो जोगो સ્થિ' જે નારકાદિજીવને જે યાગ થાય છે તેને તેજ યાગ કહેવા. બીજાને छे - 'सजोगी, मणजोगी, वयजोगी कायसयोगी, मनोयोगी, वयनयोगी, भने બહુવચનથી આહારક સૂત્રમાં કહ્યા અપ્રથમ જ છે. કેમકે અનાદિ સસા
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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