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________________ भगवतीस्त्रे मिकसम्यक्त्वापेक्षया प्रथमाः, द्वितीयादि सम्यग्दर्शनलाभापेक्षया अप्रथमा अपीति । “एवं जात्र वेमाणिया" एवं याबद्ध मानिकाः, एवमेव एकेन्द्रियवर्जितयावद्वैमानिकदण्डकेषु बहुवचनमाश्रित्य प्राथम्याप्राथम्यवर्णनं कर्त्तव्यमिति, "सिद्धा पढमा नो अपढमा" सिद्धाः प्रथमा नो अप्रथमाः, सिद्धाः सम्पदृष्टिभावेन प्रथमा एव यतः सिद्धत्वागतस्य सम्पग्दर्शनस्य सिद्धावस्थायां प्रथमत एव प्राप्ति भवतीति, "मिच्छादिहिए एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारए" मिथ्यादृष्टिक एकत्वपृथक्त्वेन यथा आहारकः, मिथ्याष्टिीवो मिथ्यादृष्टिभावेन एकवचनबहुवचनमाश्रित्य आहारकसूत्रबद् अप्रथम एवं यतो मिथ्यादर्शनमनादि अतस्तादृशदर्शनस्य अनादितः प्राप्तत्वात् । “सम्ममिच्छादिट्ठी एगत्तपुहुत्तेणं हैं और अप्रथम भी हैं । प्रथम सम्यक्त्व के लाभ से वे प्रथम हैं और द्वितीय आदिवार में प्राप्त करने की अपेक्षा से वे अप्रथम भी है। 'एवं जाव वेमाणिया' इसी प्रकार से एकेन्द्रिय वर्जित यावत् वैमानिक दण्डकों में भी बहुवचन की अपेक्षा करके प्रथम और अप्रथम का वर्णन कर लेना चाहिये । 'सिद्धा पढमा नो अपढमा' सम्यग्दृष्टि भाव से समस्त सिद्ध प्रथम ही हैं। क्योंकि सिद्धत्व सहचरित सम्पदर्शक का काम सिद्धावस्था में ही होता है इसके पहिले नहीं। 'मिच्छादिहिए एगत्तहुत्ते णं जहा आहारए' मिथ्या दृष्टिभाव की अपेक्षा से मिथ्या. दृष्टि जीव एकवचन एवं बहुवचन को लेकर आहारक सूत्र के जैसा अप्रथम ही है। क्योंकि मिथ्यादर्शन स्वयं अनादि है अतः ऐसे दर्शन को इस जीवने अनादि से ही प्राप्त कर रखा है। 'सम्मामिच्छा. અને અપ્રથમ પણ છે. પ્રથમ સમ્યક્ત્વના લાભથી તેઓ પ્રથમ પડ્યું છે भीत्री वा प्राप्त ४२वानी अपेक्षा तसा मप्रथम छे. "एवं जाव वेमाणिया" मे ४ प्रभाव मेन्द्रियने छोडीन यावत् वैमानि मा પણ બહુવચનને આશ્રય કરીને પ્રથમ અને અપ્રથમનું વર્ણન કરી લેવું. "सिद्धा पढमा नो अपढमा" सभ्य दृष्टि माथी अधा सिद्ध प्रथम र છે. કેમ કે સિદ્ધપણાની સાથે રહેનારૂં સમ્યગદર્શન સિદ્ધાવસ્થામાં જ प्राप्त थाय छे. तनाथी पडेai प्रात तु नथी. "मिच्छादिदिए एगत्तपहत्तेणं जहा आहारए" मिथ्याल्टि मावनी अपेक्षाथी मिथ्याष्टि એકવચન અને બહુવચનથી આહારક સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે અપ્રથમ જ છે. કારણ કે મિથ્યાદર્શન પિતે જ અનાદિ છે. જેથી આ જીવે એવું દર્શન मनाहियी पास ४२ छ. "सम्मामिच्छादिट्ठी एगत्तपुहुत्तेणे जहा सम्म શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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