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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १७ उ० ३ सू० १ जीवानामेजनावत्वनिरूपणम् ४२३ यहा 'समियं' इत्यस्य प्राकृतत्वात् 'समितः' इतिच्छाया, तत्र समितः सम्यक् इत: प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गम् 'एयई' एजति-कंपते 'वेयई' व्येजति-विशेषरूपेण कमते 'जाव तं तं भावं परिणमई' यावत् तं तं भावं परिणमते अत्र यावत्पदेन 'चलइ, फाइ, घट, खुमइ, उदोरई' इति संग्राह्यम् । चलति, स्पन्दते, घट्टते, क्षुभ्यति, उदीरयति इति छाया, तत्र चलति-स्थानालस्थानान्तरं गच्छति । स्पन्दते-किश्चिञ्चलति, अन्यत्स्थानं गत्वा पुनस्तत्रैवागच्छतीति वा । घट्टते-सर्वदिक्षु चलति, पदार्थान्तरं स्पृशति वा । क्षुम्पति-क्षुब्धो भाति बिभेति वा । उदी. रयति-उत्-प्राबल्येन प्रेयति, पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा । हे भदन्त ! शैलेशी
टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि-'सेलेसि पडि बन्नए णं भंते अणगारे सया समियं सयइ, वेयह, जाव ते तं भाव परिणमा' हे भदन्त ! जो अनगार शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो चुका है, वह सदा सर्वदा प्रमाण रहित अथवा-तमियं' 'मोक्ष के मार्ग भूत्रज्ञानादिक को प्राप्त हुआ, क्या 'एजते' कंपित होता है ? 'व्येजति' विशेषरूप से कंपित होता है ? 'जाव तं तं भावं परिणमई' यावत् उस उस भावरूप से परिणत होता है ? यहां यावत् शब्द से 'चलइ, फंदह, घट्टइ, खुमइ, उदीरइ,' इन क्रियापदों का संग्रह हुआ है। क्या वह इस अवस्था में 'चलइ' एक स्थान से दूसरे स्थान में जाता है ? 'फंदई' कुछ २ चलता है ? अथवा-दूसरे स्थान पर जाकर के पुनः वहीं पर आ जाता है क्या ? 'घट्टह' सर्व दिशाओं में चलता है ? या पदार्थान्तरों को छूता है या 'खुम्भह' वह क्षुब्ध होता है ? या डरता है क्या ? 'उदीर.
ટીકાઈ—આ સૂત્રથી ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે"सेलेसि पडिवण्णए णं भंते ! अणगारे सया समियं एयइ, वेयइ, जाव तं तं भावं परिणमइ” है सावन २ सनगारे शैलेशी अवस्था प्राप्त की डाय छ, ते सहा सहा प्रमाण २क्षित अथवा-"समियं" मोक्षना भाग३५ ज्ञान प्राप्त शने एजति" शु. ४ छ ? “व्येजति" विशेष ३५थी ये छ ? “जाव तं तं भावं परिणमइ” यावत् ते ते माथी पति छ? मडियां यावत् शपथी "चलइ, फरह, घट्टइ, खुब्भइ, उदीरइ” ।
यापहोना सब थय। छे. या अवस्थामा “चलति" ४ स्थानथी भी स्थानमा नय छ ? ' स्पन्दते" Us या छ ? अथवा भी२ स्थाने ४४२ शथी त्यin 41वी तय छ ? "घट्टते" मधी हिशोभा यासे छ १ अथवा "क्षुभ्यति" a क्षु५५ थाय छ १ ५ ते ७२ छ ? "उदीरयति" પ્રબળતાથી કોઈને પ્રેરણું કરી શકે છે? અથવા તે પદાર્થાન્તરનું કેઈની પ્રત્યે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨