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भगवतीसरे स्पर्शवत्वं जीवे लभ्यते 'से तेणटेणं गोयगा ! जाव चिहित्तए' तत्तेनार्थेन गौतम ! यावत् स्थातुम् अत्र यावत्पदेन 'देवे' इत्यारभ्य 'पुयामेव रूपी भवित्ता नो पभू अरूवि विउत्तिा ' इत्यन्तस्य ग्रहणं भवति यतस्तस्य जीवस्य कालत्वादिकं प्रज्ञायतेऽतो नासो तथागतो जोत्रो रूपी सन् अरूपिणम् आत्मानं विकुळ स्थातुम् प्रभुरिति भावः । संसारिजीवमाश्रित्य कथितम् । सिद्ध नीवमाश्रित्य आह'सच्चेव णं भंते !' स एव खलु भदन्त ! 'से जीवे पुबामेव अरूबी भवित्ता स जीवः पूर्व मे अरूपी भूम्या अरूपी सन् 'पभू रूविविउवित्ताणं चिद्वित्तए' प्रभुः रुपि विकुळ रूपी भूत्वे यर्थः खलु स्थातुम् रूपादिरहितो जीवः किं रूपादिम ग्रहण हुआ है। तात्पर्य कहने का यह है-कि जीव में पांच वर्णवत्ता, द्विगन्धवत्ता, पंच रमवत्ता, और आठ स्पर्शवत्ता प्रतीत होती है। 'से लेणटेणं गोयमा! जाब चिट्ठिसए' इसी कारण हे गौतम! मैंने ऐसाकहा हैकि देव वैक्रियकरण के काल से पहिले ही रूपी हो करके याद में अमूर्त आत्मा हो करके रह सकने के लिये समर्थ नहीं है। यहां यावस्पद से 'देवे' यहां से आरम्भ करके 'पुधामेव रुवीभवित्ता नो पभू अरूवि उधित्ता' यहांतक का पाठ ग्रहण किया गया है । जिस कारण से उस जीव में कालस्वादिक-कृष्णवर्णवाला आदिरूप व्यवहार-सामान्यजनों द्वारा भी किया जाता है (से तेग टेणं गोयमा ! जाब चिट्टित्तए) इसी कारण तथागत यह जीव रूपी होता हुआ अरूपी रूप से अपने आपकी विकुर्वणा नहीं कर सकता है। यह पूर्वोक्त कथन संसारी जीव की अपेक्षा से कहा गया है। अब सिद्ध जीव की अपेक्षा से सूत्रकार कथन करते हैं-'सच्चेव ण ते ! से जीवे पुवामेव अरवी भवित्ता पभू रूवि विउवित्ता गं चिट्टित्तए' इस सूत्र द्वारा गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है
छ “से तेणद्वेणं गोयमा जाव चिद्वित्तए" जीवम ! ४२४थी में से કહ્યું છે કે દેવ વિકિય કરણ કાળની પહેલાથી જ રૂપી થઈને તે પછી આત્માને અમૂર્ત કહીને રહેવા સમર્થ થતો નથી. અહિયાં યાવત પદથી
वे' से पहथी सन "पुजामेव रूबी भवित्ता नो पभू अरूपि विउव्वित्तए" અહિં સુધીનો પાઠ ગ્રહણ થયેલ છે. જે કારણથી તે જીવમાં કાલસ્વાદિક– કણવ વાળા આદિ રૂપ વ્યવહાર સામાન્ય જન દ્વારા પણ કરાય છે. એજ કારણે તથાગત આ જીવ રૂપી બનીને પિતે પિતાને અરૂપી રૂપથી વિફર્વ કરી શક્તા નથી. આ સઘળું પૂર્વોક્ત કથન સંસારી જીવની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવ્યું છે, હવે સિદ્ધ જીવની અપેક્ષાથી सूत्रमार यन ४२ छ. "सच्चेव णं भंते ! से जीवे पुवामेव अरूबी भवित्ता पभू रूवी विउव्वित्ता णं चिद्वित्तए" मा सूत्र द्वारा गौतम
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨