SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ भगवतीसूत्रे 'सागा' सरागस्प - रागाच्चादेव कर्मसम्बन्धी मानि स्वभावतोऽमूर्तस्थापि जीवस्येत्यर्थः उपलक्षणत्वात् द्वेषयुकस्यापि रागद्वेषयोः सहचरितत्वात् । तथा 'सवेयस्स' सवेदस्य स्त्र्यादिवेदयुक्तस्य, तथा 'समहन्स' मोहकर्मयुक्कस्य 'सलेलस्स' सलेश्वस्य लेश्यायुक्तस्य 'ससरीरस्स' सशरीरस्य - शरीरसहितस्य 'ताओ सरीराओ अविष्यमुकप्स' तस्मात् शरीरात् अविमुक्तस्य येन शरीरेण शरीरी कथ्यते तेन शरीरेण संश्लिष्टस्य किन्तु न तद्रहितस्य । एतादृशजी व विषये एवं पन्नाय ' एवं वक्ष्यमाणं प्रज्ञायते सामान्यजनेनापि 'तं जहा ' तद्यथा 'कालते वा' कालत्व' वा 'जाव सुकिल्लते वा' यावत् शुकस्य वा इह यावत्पदेन नीलरक्तपीतवर्णानां अमूर्त है तो फिर उसके साथ कर्मपुद्गल का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? इसके लिये कहा गया है कि यह जीव 'सरागस्स' रागसहित है। अतः रामसहित होने के कारण इसके साथ कर्म पुद्गल का सम्बन्ध हुआ है । राग शब्द यहां उपलक्षण है-अतः इससे द्वेष का भी ग्रहण किया गया क्योंकि ये दोनों सहचरित हैं। यह जीव स्त्री आदि वेदों से युक्त है । अतः इसे सवेद कहा गया है । मोहकर्म से युक्त होने के कारण इसे समोह कहा गया है। लेश्या से युक्त होने के कारण सलेश्या तथा शरीर से सहित होने के कारण इसे सशरीर कहा गया है। अतः जिस शरीर से वह युक्त बना हुआ है और इसी कारण से जिसमें उस शरीर को लेकर यह शरीर है ऐसा व्यवहार हो रहा है सो ऐसे जीव के विषय में सामान्य जन भी ऐसा कहते हैं- 'तं जहा कालते वा जाव सुक्किल्ल से જ્યારે સ્ત્રભાવથી જ અમૂત છે, તેા પછી તેની સાથે ક પુàાના સંબધ કેવી રીતે થાય છે ? તે માટે એમ કહેવામાં આવે છે કે આ જીવ “सरागस्स” राग सहित अर्थात् रागवाणी हे राग सहित होवाथी तेनी સાથે કમ પુદ્ગલેાના સબંધ થયેા છે. અહિયાં રાગ શબ્દ ઉપલક્ષણ છે જેથી તેનાથી દ્વેષનુ પણ ગ્રહણ થયું છે. કેમ કે તે અને સહચારિ—સાથે રહેનારા છે. આ ૭૧ શ્રી પુ. નપુ ́સકના વેદથી યુક્ત છે જેથી તેને સંવે’ वेहवाजे उद्यो छे. मोहनीय वाण होवाथी तेने “समोह" मोडवाणी उह्यो छे. ते बेश्यायुक्त होवाथी तेने "ससेश्य" वेश्यावाणी उद्यो छे. અને શરીર યુક્ત હાવાથી તેને સશરીર” શરીરવાળા કહ્યો છે. જેથી જે શરીર યુક્ત તે જીવ હાય, અને તેજ કારણથી જેમાં તે શરીરના કારણે આ શરીર છે તેમ વ્યવહાર થાય છે, તેવા જીવના વિષયમાં સામાન્ય જન પ मेवु छे "कालत्ते वा जाव सुकिल्लत्ते वा" भाव है-जा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy