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________________ A RE - ३६८ भगवती पदपयोग न कृत्वा अपि शब्दं पयुक्ते ? इति चेत् एकजीवाधिकारे एकस्मिन् जीवे अनेकक्रियावत्वस्यासंभवात् स्यात् पदप्रयोगः कृतः अनेकजीवविचारे तु जोवानामनेकत्वात् एकदापि अनेकक्रियावत्वसंभवे अत्र सिय पदं विहाय 'वि' शब्दप्रयोगः कृतः ‘एवं पुढवीकाइया वि' एवं पृथिवीकायिका अपि यथा जीवानां त्रिक्रियादिमत्वं कथितं तथा पृथिव्याधे केन्द्रियादीनामपि त्रिचतुःपञ्चक्रियावत्वं बोध्यम् ‘एवं जाव मणुस्सा' एवं याचन्मनुष्याः एवं यथोक्तक्रमेण दण्डकपरम्परया मनुष्यानामपि त्रिचतुःपञ्चक्रियावत्वं ज्ञातव्यम् अन्या वक्तव्यता पूर्ववदेव विशेगा। देवनारकयोरौदारिकशरीराभावादत्र तयोर्न ग्रहणं कृतमिति जय बहु जीव के विषय में दण्डक का उच्चारण किया जावेगा तष यहाँ 'सिय' शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिये । किन्तु 'वि' शब्द का प्रयोग करना चाहिये इसका कारण ऐसा है कि एक जीवाधिकार में एक जीव में एक काल में अनेक क्रियावत्व का असंभव है अतः वहां स्यात् पद का प्रयोग किया गया है। परन्तु अनेक जीव विचार में जीवों की अनेकता होने से एक काल में भी अनेक क्रियावत्व का संभव है इसलिये वहां 'सिय' को छोड कर 'वि' शब्द का प्रयोग करने को कहा गया है। 'एवं पुढ बीकाहया वि' जिस प्रकार से जीवों के त्रिक्रियादि. मत्व कहा गया है उसी प्रकार से पृथिव्यादिएकेन्द्रिय जीवों को भी तीन, चार और पांच क्रियावाला कहलेना चाहिये । 'एवं जाव मणुस्सा' इस प्रकार यथोक्तक्रमानुसार दण्डक परम्परा को लेकर मनुष्यों को भी तीन चार और पांच क्रियाओं से युक्तता जाननी चाहिये । देव और છે. પરંતુ જયારે બહુ ના વિષયમાં દંડકનું ઉચ્ચારણ કરવામાં આવે त्यारे त्यो “सिय" से शनी प्रयोग था नथी. परंतु “वि” शहना પ્રગ કર જોઈ એ તેનું કારણ એવું છે કે એક જવાધિકારમાં એક OHi समयमा मने जियाणान! असम छ. २था या "स्यात् " એ પદને પ્રયોગ કરવામાં આવે છે, પરંતુ અનેક જીવોના વિચારમાં જોમાં અનેકતા હોવાથી એક કાળમાં પણ અનેક ક્રિયાપણાને સંભવ છે. रथी त्या "सिय" से ५४ छोडन "वि” शनी प्रयोग ४२पार्नु छ "एवं पुढ विकाइयावि" २ रीत सानु त्र याहि पाणु यु छ ते રીતે પ્રશી વિગેરે એકેન્દ્રિય જીવોને પણ ત્રણ ચાર અને પાંચ ક્રિયાવાળા समसपा “एवं जाव मणुस्सा" से शत ५२।तभानुसा२ १४नी પરંપરાને લઈને મનુષ્યને પણ ત્રણ, ચાર અને પાંચ ક્રિયાઓથી યુક્ત સમજવા, દેવ નારકોમાં ઔદારિક શરીર થતું નથી. તેથી ત્યાં તેઓનું શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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