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________________ २८४ भगवतीस्त्रे विमलादिक तथैव निरवशेषम् दशमशतके प्रथमोद्देशके विमलादिशमाश्रित्य यथा कथितम् तथैव सर्वमपि रत्नप्रभा पृथिव्याः उपरितनचरमान्ते योजनीयम् योजना चैवं कार्या, तथाहि-इमीसे णं भंते !' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभापृथिव्याः 'उपरिल्ले चरिमते किंवा ६' षट् कि जीवाः किं वा जीवदेशा जीवपदेशाः अजीवा अजीवदेशा अजीव प्रदेशाः इति प्रश्नः । 'गोयमा ! नो जीवा' हे गौतम ! नो जीवाः एकप्रदेशमतरात्मके तस्मिन् असंख्यातप्रदे. शावगाहिनां तेषामनवस्थानात् 'जीवदेसा वि ५' जीवदेशा अपि १ जीवपदेशा अपि २ अजीवा अपि ३ अजीवदेशा अपि ४ अजीवप्रदेशा अपि ५ 'जे जीवदिसा तहेव निरवसे सं' जिस प्रकार से दशवे शतक के प्रथम उद्देशक में विमलादिशा के सम्बन्ध में कहा गया है उसी प्रकार से रत्नप्रभा पृधिवी के उपरितन चरमान्त के विषय में वह सब कथन योजित कर लेना चाहिये। वह कथन इस प्रकार से योजित करना चाहिये-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्ले चरिमंते कि जीवा, जीवदेसा, जीव पएसा, अजीवा, अजीवदेसा अजीवपएसा' इस प्रश्नका तात्पर्य ऐसा है कि-हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त में क्या जीव हैं ? जीवदेश है ? जीवप्रदेश है? अजीव है ? अथवा अजीवदेश है? अजीव प्रदेश है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! नो जीवा,' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त में जीव नहीं हैं। क्यों कि वह उपरितन चरमान्त प्रदेश प्रतररूप है अतः उसमें असंख्यात प्रदेशाव. गाही जीवों को अबस्थान होना असंभव है। 'जीव देसावि' हां वहां जीव देश हैं, जीव प्रदेश हैं अजीव है अजीवदेश हैं શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં વિમલા દિશાના સંબંધમાં કહેવામાં આવ્યું છે. તેજ રીતે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તના વિષયમાં તે સઘળું કથન અહિં Naq, ते ४थन प्रमाणे छे. "इमीसे गं भंते रयणप्पभाए पुढवीए उरिल्ले चरिमन्ते कि वा जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, अजीवा, अजीव देखा अजीव पएसा" भगवन् २त्नप्रभा पृथ्वीना ५२न। यरमान्तमा शुक्छे ? કે જ દેશ છે કે જીવ પ્રદેશ છે ? અથવા અજીવ છે. અજીવ દેશ છે કે भ७१ प्रदेश छे. तेना उत्तरमा प्रभु ४३ छे -"गोयमा! नो जीवा" है ગૌતમ, રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ચરમાતમાં જીવ નથી, કારણ કે તે ઉપર ચરમાન્ત પ્રદેશ પ્રતરરૂપ છે. જેથી તેમાં અસંખ્યાત પ્રદેશમાં રહેવાવાળા જીનું भस्थान सा मसल छे. "जीव देसावि" त्यो हेश छ १ प्रदेश छ, म छे, म हेश छ, भने ७१ प्रदेश छे. “जे जीवदेसा ते શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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