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________________ भगवतीसत्रे स्थैक प्रतररूपतया लोकदन्तकाभावेन देशानेकत्वस्या कारणत्वादिति अतएवोच्यते एवं मज्झिल्लविरहियो जात्र पंचेंदियाणं' एवं मध्यमविरहितो यावत् पञ्चेन्द्रियाणाम् अत्र यावत्पदेन त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियानिन्द्रियाणां ग्रहणं भवतीति एकेन्द्रियवत् द्वीन्द्रियादारभ्य चतुरिन्द्रियपर्यन्तं जीवेषु त्रिक.संयोगिको भङ्गो वाच्यस्तत्र मध्यमभङ्गः 'एकेन्द्रियदेशाश्च अनिन्द्रियदेशाश्च द्वीन्द्रियस्य च देशाः' इत्याकारको वक्तव्य इति भावः । लोकस्योपरितनचरमान्ते जीवदेशविषयक विचारं कृत्वा प्रदेशविचाराय पाह-'जे जीव पएसा' इत्यादि । 'जे जीवप एसा ते नियमं एगिदियपएसाय अणि दियपएसाय' ये जीवप्रदेशास्ते निय. क्योंकि कि प्रदेश का हानिवृद्धि द्वारा हुई लोकदन्तक विषमता से नहीं है । अतः अनेक प्रतरात्मक पूर्वचरमान्त के जैसा वहां अनेक देश नहीं होते हैं । अतः लोक का उपरितन घरमान्त एक प्रतर रूप होने के कारण लोकदन्तक विषयता के अभाव से देशों की अनेकता होने का वहां कोई कारण नहीं है । इसलिये 'एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव पंचिदियाणं' ऐसा कहा गया है। यहां यावत् शब्द से तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार एकेन्द्रिय जीव के जैसा द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीवों में त्रिक संयोगिक भंग कह लेना चाहिये वहां मध्यम भंग' एकेन्द्रिय देशाच, अनिन्द्रिय देशाश्च द्वीन्द्रियस्य च देशाः ' जो कि इस प्रकार से है । नहीं कहना चाहिये। इस प्रकार लोक के उपरितन चरमान्त में जीवदेश विषयक विचार करके अब प्रदेश विषयक विचार करने के निमित्त 'जे जीवपएसा ते नियम एगियपएसा य अणिदियपएसाय' ऐसा कहा गया है । इसमें પ્રતરાત્મક પૂર્વ અરમાન્ડની માફક ત્યાં અનેક દેશ હોતા નથી જેથી લોકની ઉપરને ચરમાન્ત એક પ્રતર રૂપ હોવાના કારણે લોકના અંતના અભાવથી हेशानी मनेता डावानु त्यो १२६१ नथी थी "एवं मझिल्लविर हिओ जाव पंचिदियाणं" से प्रमाणे वाम माव्यु छ. मडियां यावत શબ્દથી તેઈન્દ્રિય, ચૌઈન્દ્રિય અને અનીન્દ્રિય જીનું ગ્રહણ થયું છે. આ રીતે એકેન્દ્રિય જીવોની માફક દ્વીન્દ્રિય જીથી લઈને ચાર ઈન્દ્રિય પર્ય"તના જીવોમાં ત્રિક સગી ભંગ કહે જઈએ ત્યાં મધ્યમ ભંગ है 'एकेद्रियदेशाच, अनीन्द्रियदेश'श्च, द्वीन्द्रियस्य च देशः' मा प्रमाणे छे. ॥शत લોકના ઉપરના ચરમાન્ડમાં જીવ દેશ વિષયને વિચાર કરીને હવે જીવ પ્રદેશ विषयन विया२ ४२त सूत्रा२ ४९ छे है, 'जे जीवपएसा ते नियम एगिदिय पएसाय अणि दियपएसाय' से प्रभारी उडुं छे. तमां से प्रमाण ५५ ४२वामा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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