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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ६ ० १ स्वप्नस्वरूपनिरूपणम् १९९ भावात् नो सुप्तजागरिताः देशविरतेरप्यसञ्चादिति । 'एवं जाव चउरिदिया' एवं यावत् चतुरिन्द्रियाः एवमेव-नारकवदेव एकेन्द्रियादारभ्य चतुरिन्द्रिय पर्यन्ताः जीवाः सर्वदैव सुप्ताः विरतेरभावात् अतएव नो जागरिता न वा सुप्त जागरिता इति समुदितार्थः । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ।' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकाः खलु भदन्त ! 'कि सुत्ता पुच्छा' किं सुप्ता इत्येवं रूपेण पृच्छा प्रश्नः तत्र पुच्छेति पदम् 'किं जागरा सुत्तजागरा' इत्यनयोः संग्राहनम् तथा च हे भदन्त ! ये इमे पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका जीवास्ते कि सुप्ताः जागरिताः सुप्तजागरिता वेति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'मुत्ता' सुप्ताः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका जीवाः विरल्य भावेन सर्वदेव होते हैं। जागरित तो ये इसलिये नहीं हैं कि इनमें विरति का अभाव रहता है और सुप्न जागरित इसलिये नहीं हैं कि इनमें देशविरति का अभाव रहता है "एवं जाव चउरिदिया" इन नारकों के जैसा ही एकेन्द्रियजीव से लेकर चतुरिन्द्रियपर्यन्त के जीव सब ही सर्वदा सुप्त ही हैं ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि इनमें भी विरति या देशविरति का सर्वथा अभाव रहता है इसलिये सिद्धान्त में इन्हें न जागरित कहा गया है और न सुप्तजागरित ही कहा गया है । "पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि सुत्ता पुच्छा" अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं कि पंचेन्द्रियतियश्च क्या सुप्त हैं ? या जागरित हैं ? या सुप्त जागरित हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-"गोयमा!" हे गौतम! पंचेन्द्रियतिर्यश्च जीव "सुत्ता" सुप्त भी हैं कारण कि इनमें विरति का अभाव है, 'नो जागरा' जागृत नहीं है क्योंकि 'नो सुत्तजागरा' ना२४०१ त हात नथी. तभसुस गत ५६५ हात नथी. જાગ્રત તે તેઓ એટલા માટે નથી કે તેઓમાં વિરતિને અભાવ રહે છે. અને हेश नितिन ममा पाथी तमा सुत गत ५ नथी. 'एवं जाव चउरिदिया' मा ना२४७वानी मा मेन्द्रिय थी साधन तुरिन्द्रिय सुधान। સઘળા જી હમેંશા સુપ્ત છે. તેમ સમજવું. કેમકે તેઓમાં વિરતિને અને દેશ વિરતિનો સર્વથા અભાવ રહે છે. જેથી સિદ્ધાન્તમાં તેઓને જાગ્રત ५ नहि मन सुस्तायत ५६ नहि सम ४ामा माव्यु छे. 'पंचे दिय तिरिक्खजोणियाणं भंते! कि सुत्ता पुच्छा' वे गौतम ! स्वामी प्रभुने मे પૂછે છે કે પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છે શું સુપ્ત છે? કે જાગ્રત છે. અથવા सुप्त शत छे. तेना उत्तम प्रभु छ, 'गोयमा' गौतम! ५ये न्द्रिय तिय ५ वा सुत्ता' सुस्त ५५ छ. २' में तमाम विति३५
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨