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भगवतीसरे सम्यग् दृष्टि देवमतस्याभिप्राय इति । 'तं मायि मिच्छादिट्ठि उववन्नगं एवं पडिइणई' तं मायि मिथ्यादृष्टयुपपन्नकम् एवं प्रतिहन्ति पराजयं करोतीत्यर्थः । 'एवं पडिहणित्ता' एवं प्रतिइन्य एवमुक्तेन प्रकारेण प्रतिहन्य पराभूय, 'ओहि पउंजइ' अवधिम् , अवधिज्ञानम् प्रयुक्त अवधिज्ञानस्य प्रयोगं करोतीत्यर्थ:'ओहि पउंजित्ता' अवधि प्रयुज्य 'मम' माम् 'ओहिणा' अवधिज्ञानेन 'आभो एई' आभोगयति अवलोकयति 'आमोएता' आभोग्य अवलोक्य 'अयमेवास्वे जाव समुप्पज्जित्था' अयमेतावद्रूपो यावत्संकल्पः समुदपद्यत अत्र यावत्पदेन 'अज्झथिए चितिए पथिए कप्पिए मणोगए संकप्पे' इत्यन्तो ग्राणः कीदृशो मनोदेश होने में कोई विरोध नहीं है । अपितु ये दोनों वहां सुसंगत ही है, ऐसा सम्यदृष्टि देव के मन का अभिप्राय है। 'तं मायिमिच्छा. दिहि उववन्नगं एवं पडिहणइ' इस प्रकार स्थाबादमत के आश्रय से उस सम्यग् दृष्टि देवने उस मायो मिथ्यादृष्टिदेव को पराजित कर दिया। 'एवं पड़िहणित्ता' पराजित करके 'ओहिं पजह' फिर उसने अपने अवधिज्ञान को लगाया। ओहिं पउंजित्ता' अवधिज्ञान को लगा करके 'मम' मुझे उसने 'ओहिणा' उस अवधिज्ञान से 'अभोएई' देखा 'आमोइत्ता' देखकर 'अयमेयारूवे जाव समुप्पजिस्था' फिर उसने इस प्रकार से विचार किया-यहां यावत्पद से 'अज्झथिए, चिंतिए, कपिए, पस्थिए, मणोगए, संकप्पे 'इन विचार के विशेषणों का ग्रहण हुआ है। 'एवं खलु समणे भगवं महावीरे' क्या विचार उसे उत्पन्न हुआ-भाव यह है कि 'अज्झस्थिए' आध्यात्मिकः महावीर स्वामी के पास जाऊँ। यह आध्यात्मिक विचार अङ्कुरित जैसा हुआ। 'चिंतिए' चिन्तितः प्रमु के पास जाना आवश्यक है, इस प्रकार पुनः पुनः चिन्तन से द्विपत्रित કોઈ પણ પ્રકારનો વિરોધ રહેતું નથી પરંતુ તે બને ત્યાં સુસંગત જ છે. सेवा सभ्यष्टि देना भनन। मनिप्राय छे. “तं मायि मिच्छादिदि उववन्नगं एवं पडिहणइ" मा शत स्याद्वाह भतन मायथीत सभ्यपष्ट हवे ते माथी मिथ्या हेपने ५२ री सीधी. • एवं पडिहणित्ता" ५२॥ शव “भोहिं पञ्जइ" ५०ी तोपताना मवधिज्ञानना उपयोग यो " ओहिं पउंजित्ता" मधिज्ञानना ५योग शेन " मम" भने ओहिणा" त मथिज्ञानयी “आभोएइ "यो " आभोएत्ता" ने “ अयमेयारवे जाव समुप्पजित्था" ते पछी त । प्रभार विचार मिडिया यावत् ५४थी “ अज्झथिए, चितिए, पत्थिए, कप्पिए, मणोगए, संकप्पे " मा विशेषानु अहए थयुछे, " एवं खलु समणे भगवं महावीरे" तना
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨