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________________ ममेववन्दिका टीका २०१६ ३०४ १०२ शकेन्द्रविषयकप्रश्नस्पष्टीकरणम् १९५ एशितो भवति परिणामः तदनन्तरं याति अंशे न परिणामोऽभूत् प्रथमसमये, दावति अंशे द्वितीयसमये न परिणामो भवति एवं व्यादि समयाधारभ्य अन्तिम समयपर्यन्तं परिणामो जायते इति प्रथमसमयस्य नाशानन्तरमेव तत्र परिणत इति व्यवहारो भवति, पथमसमयापेक्षया परिणत इति व्यवहारो भूतकालिका, द्वितीयादिसमयापेक्षया च परिणमतीति वर्तमानापदेशोऽपि भवतीति उभयमपि अविरुद्धमेवेति कृत्या परिणमन्तीति तत्र परिणता इति कथं न सुसंगतमेवेति मानना चाहिये-कि प्रथम समय में ही अंशत: परिणाम होता है। इसके बाद द्वितीय समय में जितना वहां परिणाम होना चाहिये था वह वहां प्रथम समय में नहीं होता है, इसी प्रकार से तृतीय समय में जितना परिणाम होना चाहिये वह द्वितीय समय में वहां नहीं होता है। इस प्रकार प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक वहां परिणमन होता रहता है अतः जब प्रथम समय नष्ट हो जाता है-तब उस समय में जो परिणाम वहां हुआ है उस परिणाम में 'परिणत' ऐसा व्यपदेश हो जाता है। यह व्यपदेश भूतकालिक है। क्योंकि यह परिणाम प्रथम समय में हो चुका है तथा द्वितीयादि समयों की अपेक्षा वह परिणाम जो अभी होना थाकी है-वहां हो रहा है। ऐसा व्यपदेश होता है, अतः 'परिणति' ऐसा वर्तमान कालिक व्यपदेश भी होता है और प्रथम समय की अपेक्षा वह परिणाम हो चुका है इसलिये परिणत ऐसा भी व्यपदेश होता है इस प्रकार परिणमन्ती परिणत:' ये दोनों व्यपથશે જેથી એવું જ માનવું જોઈએ કે પ્રથમ સમયમાં જ અંશતઃ પરિણામ થાય છે તે પછી બીજા સમયમાં ત્યાં જેટલું પરિણામ થવું જોઈએ તે તેમાં પ્રથમ સમયમાં થતું નથી એ જ રીતે ત્રીજા સમયમાં જેટલું પરિણામ થવું જોઈએ તે બીજા સમયમાં થતું નથી આ રીતે પ્રથમ સમયથી લઈને અંતિમ સમય સુધી તેમાં પરિણામ થતું જ રહે છે. તેથી જ્યારે પ્રથમ સમય નાશ पामे छे. त्यारे त समयमा २ परिणाम या थयुं छे ते परिणाममा "परि. णत" मेवा ०५५देश (व्यवहा२) छे. म। व्यपदेश (448) भूतકાળ સંબંધી છે કેમકે આ પરિણામ તેમાં પ્રથમ સમયમાં થઈ ચુકયું છે. તથા બીજા વિગેરે સમોની અપેક્ષાએ તે પરિણામ કે જે હજી થવાનું माही छत थाई २ छ सेवा व्यपा२ १२वामा माछ. रथी “परिणमंति" वो वतमान समयी व्यवहा२ ५५ थाय छे. अने पडे। सभयनी અપેક્ષાએ તે પરિણત થઈ ચુકયું છે, જેથી “પરિણતા એ પણ વ્યવહાર थाय साशते "परिणमन्ती परिणतः” भन्ने प्रारी व्यपहेश थामा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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