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________________ भगवतीसूत्र इयं णं भंते !' यावत्कं खलु भदन्त ? 'दसमभत्तिए सपणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेह' दशममक्तकः उपवास चतुष्टयकर्ता श्रमणो निग्रंथः कर्म निर्जरयति, 'एवइयं कम्म नरएमु नेरइया वासकोडीए वा, वापकोडीहिं वा, वासकोडाकोडिए वा खवयंति' एतावत्कं कर्म नरकेषु नैरयिकाः वर्षकोटया वा, वर्षकोटिभिर्वा, वर्ष कोटीकोटया वा क्षपयन्ति यावत्संख्यकं कर्म स्वलाकालेन विनाशयति साधुः तावत्कं कर्म तत्तदुक्त कालेनापि वा किं नारकाः विनाशयन्तीति पूर्वपक्षः, भगवानाह-'णो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थः नोभयोः सादृश्यं संघटते इत्यर्थः कारणशानाय प्रश्नयति 'से केणटुंग' इत्यादिना ‘से केणटेणं भंते !' तत्केनानहीं कर सकते हैं । पुनः गौतम प्रभु से पूछते हैं-'जापायं णं भंते ! 'हे भदन्त ! जितने 'कम्म' कर्मों को दसमभत्तिए' ४ उपवास करने. वाला 'समणे निगथे' श्रमण निर्ग्रन्थ 'निज्जरेह' खपितकर देता है। 'एवइयं कम्मं नरएप्लु नेरइया वाप्तकोडीए वासकोडीहि, वा, वासकोडाकोडीए वा खवयंति' उतने कर्मों को क्या नरक में रहने वाला नरक जीव १ करोड वर्ष में, अनेक करोड वर्षों में कोटाकोटि वर्षों में नष्ट करने के लिये समर्थ हो सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-'जो इणटे सम?' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं-अर्थात् जितने कर्मों का विनाश ४ उपवास करनेवाला श्रमण निबन्ध कर देता हैउत्तने कर्मों का विनाश नरक में वर्तमान नारक जीव अधिक से अधिक १ कोटाकोटोकाल में भी नहीं कर सकता हैं । इस प्रकार से दोनों की समानता कर्मों के क्षय करने में किसी प्रकार से नहीं होती है। अब नथी इशन गौतम स्वामी छे छे है "जावइयंणं भंते ! मापन! रेटमा समयमा "कम्म" भनि “दसमभत्तिए" यार ९५३॥स ४२वावाणा “समणे निग्गंथे" श्रमण निथ “निजरेइ" नि ४२ छे. अर्थात पाव छ. “ एवइय कम्मं नरएसु नेरइया वासकोडीए वासकोडीहिं था, वास कोडाकोडीए वा स्व. यति" मेट। भान न२४मा २९ ना२४ ७१ शु श १ मा કરડે વર્ષમાં કે કોટાકોટિ વર્ષોમાં નાશ કરવાને સમર્થ થાય છે તેના उत्तरमा प्रभु ४ छ है " णो इणद्वे सम?" गौतम ! AL Aथ परामर નથી અર્થાત્ જેટલા કર્મોની નિર્જરા ચાર ઉપવાસ કરનાર શ્રમણ નિગ્રંથ થોડા સમયમાં કરે છે. એટલા કર્મોની નિજ નરકમાં રહેલ નારક જીવ વધારેમાં વધારે એક કેટકેટ કાળમાં પણ કરી શકતા નથી આ રીતે કર્મોના ક્ષય કરવામાં કઈ પણ રીતે બનેની બરોબરી થઈ શકતી નથી. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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