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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० २१ गोशालकगतिवर्णनम् ८२३ गइयाणं देवाणं बागीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता' तत्र खलु-अच्युते कल्पे, अस्त्ये केषां देवानां द्वाविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'तस्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता' तत्र खलु -अच्युते कल्पे गोशाल. स्यापि देवस्य देवत्वेन उत्पन्नस्य, द्वाविंशति सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञता, गौतमः पृच्छति-'से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं, ठिईकावएणं जाव कहिं उबवज्जिहिइ ?' हे भदन्त ! स खलु गोशालो देवस्तस्मात् देवलोकात्-अच्युतकल्पात् , आयुःक्षयेण, भवक्षयेण, स्थितिक्षयेण, यावत्-अनन्तरं च्ययं व्युत्वा, कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उत्पत्स्यते ? इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा ! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमले पुंडेसु जणवएमु सयदुबारे नयरे समुत्तिस्स रन्नो भदाए भरियाए कुच्छिसि पुत. अस्थगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता' उस कल्प में अच्युतकल्प में कितनेक देवों झी २२ बावीस सागरोपमतक की स्थिति कह गई है । 'तस्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता' सो उस अच्युतकल्प में गोशाल देव की भी २२ बावीस सागरोपम की स्थिति हुई। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिईक्खएणं जाव कहिं उववज्जिहिई' हे भदन्त ! वह गोशाल देव, उस देवलोक से-अच्युतकल्प से-आयु के क्षय, भव के क्षय और स्थिति के क्षय हो जाने से यावत् अनन्तर-चव करके कहां जावेगा ? कहां उत्पन्न होवेगा ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएस्सु सयदुवारे उत्पन्न थय। छ, “ तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता" भi seal हेवानी स्थिति २२ सा५मनी ४ी छे. "तत्थ गं गोसालस्स वि देवस्न बावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता" अश्युत કલ૫માં ગોશાલ દેવની સ્થિતિ પણ ૨૨ સાગરોપમની કહી છે. હવે ગૌતમ स्वामी सव। प्र पूछे छे -" से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएण', भवखएण, ठिईक्खएण जाव कहिं उववज्जिहि "मसવન તેિ ગોશાલ દેવ તે દેવલેકમાંથી આયુને, ભવને અને સ્થિતિને ક્ષય થવાને કારણે, આવીને ક્યાં જશે? કયાં ઉત્પન્ન થશે ? તેને ઉત્તર આપતા महावीर प्रभु ४ छ ?-" गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे विझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु सयदुवारे नयरे संमुतिस्स रनो भहाए भारियाए
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧