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________________ भगवतीसूत्रे " गायाई परामसंति' ततः खलु शीतलैः आर्द्रे : हस्तैः गात्राणि शरीरावयवान्, परामृशतः - स्पृशतः, 'जे णं ते देवे साइज्जइ सेणं आसोविसत्ताए कम्मं पकरे ' यः खलु जनस्तौ देवौ स्वदते अनुमन्यते अनुमोदते स खलु जनः आशीविषतया - सर्पभावेन कर्म प्रकरोति, 'जे णं ते देवे नो साइज्जइ, तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभव' किन्तु यः खलु जनस्तौ देवौ नो स्वदते- नानुमन्यते नो अनुमोदते तस्य खलु अनुपमन्तुर्जनस्य स्वके-निजे शरीर के अग्निकायः सम्भवति, 'से णं सरणं तेरणं सरीरंगं झामेइ' स खलु जनः स्वकेन - स्वीयेन तेजसा - तेजोलेश्यया, शरीरकं ध्यायति - दहति 'सरीरगं झामेत्ता तओ पच्छा सिम्झइ जाव अंत करेइ, से तं सुद्धपाणए' शरीरकं ध्मायित्या प्रदा ततः पश्चात् इनके नाम हैं- 'पुन्नभद्देय माणिभद्दे य' पूर्णभद्र और मणिभद्र 'तए णं ते देवा सीयलेहि उल्लएहि हत्थेहिं गायाई परामुसंति' ये दोनों देव शीतल गोले अपने हाथों से उसके शरीर का स्पर्श करते हैं । 'जे णं ते देवे साइज्जह से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेह' जो साधुजन इन दोनों देवों की अनुमोदना करता है । वह सर्पभाव सर्परूप से कर्म करता है । 'जेणं ते देवे नो साइज्जइ, तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणि· काए संभव' तथा जो इन देवों की अनुमोदना नहीं करता है-उस अननुमन्ता के अपने निज शरीर में अग्निकाय प्रकट हो जाता है 'सेणं सए णं तेए णं सरीरगं झामेह' सो वह साधुजन अपनी तेजोलेश्या से शरीर को जला देता है । 'सरीरगं झामेत्ता तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ, से तं सुद्धपाणए' शरीर को जलाकर फिर वह सिद्ध हो जाता है यावत् बुद्ध हो जाता है, मुक्त हो जाता है, नाम था अमाये थे. " पुन्नभद्दे य मणिमदे य" भद्र भने भशिलद्र "" ara देवासीयहि उल्लएहि हत्थेहि गायाई परामुसंति " ते भन्ने देवा चीताना शीतण, लीना हाथी वडे तेना गात्रानो स्पर्श हरे छे. " जे नं ते देवे साइज्जइ, सेणं आसीविसत्ताए कम्म पकरेइ " ले ते साधु ते जन्ने हेवेनी अनुमोहना १रे छे, तो सर्पभाव (सूर्य ३२) ३५ ४ ४२ छे. " जे णं ते देवे नो साइज्जइ, तर णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवइ " तथा જો તે સાધુ આ દેવાની અનુમેદના કરતા નથી, તે તે અનુમેાદના ન ४२नारना पोताना शरीरमा अभिनय अउट थर्ध लय हो, " से णं सरणं तेपण सरीरगं झामेइ " त्यारे ते साधु पोतानी तेलेवेश्या वडे पोताना शरीरने पोते नाथे छे, “सरीरंगं झामेत्ता तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंत करेइ " शरीरने। नाश हरीने ते सिद्ध था लय छे, युद्ध था लय है, 006 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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