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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० १२ गोशालकवृत्तान्तनिरूपणम् ६२१ निकाए दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति तिष्ठति, 'विहरिना ताओ देवलोगाभो आउक्खएक भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं च यं चइत्ता पढमे सभिगम्भे पच्चायाइ विहृत्य संयूथदेवनिकाये स्थित्वा, तस्मात्-संयूथात् देवनिकायविशेपात् आयुःक्षयेण, भवक्षयेण, स्थितिक्षयेण, अनन्तरम्-तदनन्तरम् चयं शरीरं त्यक्त्वा च्यवनं कृत्वा, प्रथमे संज्ञिगर्भ-पञ्चेन्द्रियमनुष्यभवे स जीवः प्रत्यायाति उत्पद्यते, 'से णं तओहितो अणतरं उव्वहिता मझिल्ले माणसे संजूहे देवे उवचज्जई' स खलु जीवः तस्मात्-संज्ञिगर्भात् अनन्तरम्-तत्पश्चात् , उद्धृत्य-उदतनां कृत्वा, मध्यमे मानसे-गङ्गादि स्वरूपप्ररूपणतः पूर्वोक्तस्वरूपे सरसि सरः प्रमाणायुष्कयुक्ते, संयूथे देवनिकायविशेषे देव उपपद्यते, से णं तत्थ दिवाई भोगभोगाई जाव विहरित्ता ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खयविशेष में-देवरूप से उत्पन्न होता है । 'से ण तत्थ दिव्वाई भोगभो. गाई भुजमाणे विहरई' वह वहां दिव्य-स्वर्गीय भोगने योग्य भोगों को भोगता है । 'विहरित्ता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अर्णतरं चयं चइत्ता पढमे सभिगम्भे जीवे पच्चायाइ' वहां के भोगों को भोगकर जब वह जीव उस देवनिकायविशेषरूप देवलोक से आयु के क्षय हो जाने के कारण अनन्तर शरीर को छोडकर मरता है तब वह पहिले संज्ञिगर्भ में-पंचेन्द्रिय मनुष्य भव में उत्पन्न होता है। 'सेणं तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता मज्झिल्ले माणसे संजूहे देवे उक्च. जइ' उस संज्ञिगर्भ से जब वह जीव उद्वर्तना करता है-तब उद्वर्तना करके-मर करके वह मध्यम सरःप्रमाण आयुष्क से युक्त देवनिकाय. विशेष में देवरूप से उत्पन्न होता है, 'से तत्थ दिवाई भोगभो. उत्पन्न थाय छे. “से गं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ" तमा त्या हव्य (स्वाय) सागसागाने सागवे छे. “विहरिचा ताओ देवलोगाआ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता पढमे सन्निगब्भे जीये पञ्चाया" त्यांना सामान सागवार नियविशेष३५ समांथा આયુને ક્ષય થઈ જવાને કારણે, ભવને ક્ષય થઈ જવાને કારણે, અથવા સ્થિતિને ક્ષય થઈ જવાને કારણે તે ભવસંબંધી શરીરથી ચવીને પહેલાં તે તે સંજ્ઞિગર્ભમાં–પંચેન્દ્રિય મનુષ્યભવમાં ઉત્પન્ન થાય છે. “से णं तओहितो अणंतरं उव्वद्वित्ता मज्झिल्ले माणसे संसहे देवे उववजह" તે સંસિગર્ભમાંથી જ્યારે તે જીવ ઉદ્વર્તન કરે છે-મરે છે, ત્યારે ઉદ્વર્તન કરીને (મરીને) મધ્યમ સરપ્રમાણુ આયુષ્યથી યુક્ત દેવનિકાય વિશેષમાં ३१३२ उत्पन्न थाय छे. “से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई जाव विहरइ, શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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