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भगवतीसूत्रे
वि, कंता वि, पिया वि, मणुन्ना वि, मणामावि भाणियन्त्रा, एए पंचदंडगा ' यथा - आत्राः, आप्ता वा भणिताः - प्रतिपादिताः एवं- तथैव इष्टा अपि, कान्ता अपि, प्रिया अपि, मनोज्ञा अपि, मनोऽमा अपि पुद्गलाः- पुद्गल विषयक वक्तव्यता मणितव्याः - प्रतिपत्तव्याः, एते आत्रे - एकान्त- प्रिय- मनोज्ञ पुद्गलविषयकाः पश्चदण्डकाः अभिलापका भवन्ति इत्यत्र सेयम्, पुद्गलप्रस्तावाद् गौतमस्तत्सम्बन्धि प्रश्नान्तरं पृच्छति - 'देवे णं भंते ! महिडिए जाव महासोक्खेरूत्रसहस्सं विउव्वित्ता भूमासा सहस्सं भासितए ' हे भदन्त ! देवः खलु महर्द्धिकः यावत्- महाधुतिकः, महाबलः, महायशाः महासौख्यो रूपसहस्रं विकुर्विश्वा वैक्रियकरणेन frotra, किं भाषासहस्रं भाषितुं वक्तुं प्रभुः - समर्थो भवति । भगवानाह - नहीं होते हैं, किन्तु अनिष्टजनक होते हैं। 'जहा अत्ता भणिया, एवं इट्ठा वि, कंता वि, पिया वि, मणुन्ना वि, मणामा वि भाणियव्वा, एए पंच दंडगा' जैसा कथन आत्र या आप्त पुद्गलों के संबंध में किया जा चुका है, वैसा ही कथन इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ एवं मनोम पुद्गलों के सम्बन्ध में भी करना चाहिये इस प्रकार से आत्र, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ पुद्गलविषयक पांच अभिलाप हो जाते हैं,
अब गौतम पुद्गल के प्रकरण को लेकर तत्संबंधी अन्य प्रश्न को इस प्रकार से पूछते हैं-'देवे णं भंते! महिडिए जाब महासोक्खे रूवस हस्सं विवित्ता पभू भासासहस्सं भासित्तए' हे भदन्त ! महर्द्धिक यावत् महाद्युतिक, महाबलिष्ठ, महायशस्वी, एवं महासौख्यशाली देव एक हजार रूपों की विकुर्वणा करके - वैक्रियशक्ति द्वारा निष्पत्ति करके क्या एक हजार भाषा को बोल सकता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं
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कंता वि, पिया वि, मणुन्ना वि, मणामा वि भाणियव्वा, एए पंच दंडगा " नेवु उथन आत्र (सुष्मा२४) अथवा भारत (डितविधाय ४) युद्धसेना विषયમાં કરવામાં આવ્યુ` છે, એવુ' જ કથન ઈષ્ટ, કાન્ત, પ્રિય, મનેાજ્ઞ અને મનેામ પુદ્ગલેના વિષયમાં પશુ કરવુ જોઇએ આ પ્રમાણે ઇષ્ટ, કાન્ત, પ્રિય, મનેાજ્ઞ અને મનામ પુદ્ગલવિષયક પાંચ અભિલાપ થાય છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
હવે ગૌતમ સ્વામી પુદ્ગલવિષયક અન્ય પ્રશ્નના મહાવીર પ્રભુને પૂછે छे - " देवेण भंते ! महिडूढिए जाव महास्रोक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता पभू भासासहस्सं भास्सित्तए ?" हे भगवन् ! भद्धि, भडाधतिङ, भहाणसिष्ठ, મહાયશસ્વી અને મહાસુખસ‘પન્ન દેવ એક હજાર રૂપાની વિષુણા કરીનેશુ. એક હજાર ભાષાએ ખેલી શકે છે ખરા?