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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १४ उ० ८ सू०२ जी विशेषगतिनिरूपणम् ३७३ वंदिय जाव भविस्सइ' सा खलु पाटलिवृक्षत्वेन उदुम्बरयष्टिका, तत्र-पाटलि. पुत्रे नगरे अर्चितपन्दित यावत् लिप्तोल्लोचितमहिता चापि भविष्यति । गौतमः पृच्छति-से णं भंते । अणंतरं उबट्टिता० ? ' हे भदन्त ! सा खलु पाटलिवृक्षतया उत्पन्ना उदुम्बरयष्टिका अनन्तरम्-ततः पश्चात् , उवृत्त्य-उद्वर्तनां कृत्वा, कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? भगवानाह-' सेसं तं चेव जाव अंतं काहिइ' हे गौतम ! शेषं तदेव-पूर्वोक्तवदेव-तत उद्वर्तनानन्तरं यावत्महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, भोत्स्यते, मोक्ष्यते सर्वदुखानामन्तं करिष्यति । अत्रे. दमवसेयम्-शालवृक्षादौ अनेकजीवसद्भावेऽपि प्रथमजीवापेक्षयैव प्रकृते तद्विचारमरूपणं कृतमिति ॥ सू० २॥ नामके द्वीप में भरतवर्ष में पाटलिपुत्र नामके नगर में पाटलिवृक्ष के रूप में उत्पन्न होगी, 'से णं तत्थ अच्चियवंदिय जाव भविस्सई' पाटलिवृक्ष के रूप में उत्पन्न हुई वह उदुम्बरयष्टिका उस पाटलिपुत्र नगर में अर्चित, वन्दित होती हुई यावत् लिप्त, उल्लोचित, एवं महित होगी। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'से णं भंते ! अणंतरं उव्वहिता' हे भदन्त ! पाटलिवृक्षरूप से उत्पन्न हुई वह उदुम्बरयष्टिका कालमास में कालकर वहां से कहां जावेगी ? कहां उत्पन्न होवेगी? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-सेसं तं चेव जाव अंतं काहिह' हे गौतम ! वह वहां से मर कर यावत् महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी, वहीं पर यह सिद्ध होगी, बुद्ध होगी, कर्मों से रहित होगी और समस्त दुःखों का अंत करेगी। यहां पर ऐसा समझना चाहिये कि शालवृक्ष आदि में अनेक યષ્ટિક આ જંબૂઢીપ નામના દ્વીપમાં, ભારતવર્ષના પાટલી પુત્ર નામના नारमा पाति (पास) वृक्ष ३३ पन्न थरी, " से णं तत्थ अस्चियः वंदिय जाव भविस्सइ " पति वृक्ष ३५ जपन्न थयेही ते म२यति પાટલિપુત્ર નગરમાં અર્ચિત, વંદિત, પૂજિત, સત્કાતિ અને સન્માનિત થશે, કે તેના ચબૂતરાને છાણ આદિ વડે લીંપશે અને તે વૃક્ષ પર જળનું સિંચન કરશે આ રીતે ત્યાં તે ખૂબ જ માન્ય (મહિમાવાન) થશે. गौतम स्वामीना प्रश्न-“से णं भते ! अणंतरं उव्वद्वित्ता०” . વન ! ત્યાંથી કાળને અવસર આવતા મરીને તે કયાં જશે? કયાં ઉત્પન્ન થશે ? महावीर प्रभुना उत्त२-" सेसं तंचेव जाव अतं काहिह" गौतम! તે ત્યાંથી મરીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થશે ત્યાંથી જ તે સિદ્ધ થશે, બુદ્ધ, થશે, મુકત થશે અને સમસ્ત દુખેને અંત કરી નાખશે. અહી એવું સમજવું જોઈએ કે શાલવૃક્ષ આદિમાં અનેક જીને સદૂભાવ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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