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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १४ उ० ५ सू० १ नै विशेषपरिणामनिरूपणम् २६७ प्तास्तु-वैक्रियलब्धिरहिता इत्यर्थः, 'तत्थ णं जे से इडिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्ख. जोगिए' तत्र-तयोर्मध्ये खलु योऽसौ ऋद्धिमाप्त:-वैक्रियलब्धियुक्तः, पञ्चन्द्रिय. तिर्यग्योनिको भवति, 'से गं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झं मझेणं वीइवएज्जा, अत्थेगइए नो वीइवएज्जा' स खलु अस्त्येकः कश्चित् क्रियलब्धियुक्तः पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिको मनुष्यलोकवर्ती अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्, मनुष्यलोकवतिनो वैक्रियलब्धिसम्भवेन तन्मध्यात व्यतिव्रजेत् , किन्तु अस्त्येकः कश्चित् वैक्रियलब्धियुक्तो मनुष्यक्षेत्राद् बहिर्वति पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकोऽग्निकायस्य मध्यमध्येन नो व्यतिव्रजेत् , अग्नेरेव तत्राभावात् , 'जे णं वीइवएज्जा, से णं तस्थ झियाएज्जा ? गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! यः खलु मनुष्यक्षेत्रवर्ती वैक्रियलब्धिपंचेन्द्रियतिर्यंच हैं वे तथा अनृद्धिप्राप्त से तात्पर्य है जो वैक्रियलब्धि से रहित पंचेन्द्रियतिर्यंच हैं वे 'से णं अत्थेगहए अगणिकायस्स मज्झं म. ज्झेणं वीइवएज्जा' अस्थेगहए नो वीहवएज्जा' इनमें जो वैक्रियलब्धिः संपन्न पंचेन्द्रियतिर्यच हैं उनमें से कोई एक पंचेन्द्रियतिर्यश्च तो अग्निकाय के बीच में से होकर निकल जाता है । और कोई एक पंचेन्द्रियतिर्यच उसके बीच में से होकर नहीं निकलता है । इसका तात्पर्य ऐसा है कि बादर अग्निकाय मनुष्य. लोक में ही है अतः ऋद्धिप्राप्ततियश्च भी यदि मनुष्यलोक में मौजूद है तो वह उसके भीतर से होकर निकल जाता है और यदि वह वैक्रियलब्धियुक्त पंचेन्द्रियतिर्यश्च मनुध्यलोक से बहिर्वर्ती है तो वह वहां बादर अग्निकाय के अभाव होने से उसके बीच से नहीं निकलता है । 'जे ण वोहयएज्जा, से णं तत्थ झियाएज्जा' हे गौतम! यदि इस पर तुम ऐसा प्रश्न करो कि वह वैक्रियलब्धियुक्त पंचेन्द्रियतिथंच उसमें जल नहीं जाता है क्या ? तो इसके उत्तर में alouी २हित य छ, तमन अनृद्धिात ४९ छे. “से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झ मज्जेणं वीइवएज्जा, अत्थेगइए नो वीइवएज्जा" तमाथी જે વૈકિયલબ્ધિસંપન્ન પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ છે, તેમાંથી કોઈ પંચેન્દ્રિયતિયચ તે અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને જઈ શકે છે, કઈ પંચેન્દ્રિયતિયચ અગ્નિકાયની વચ્ચેથી નીકળી શકતા નથી આ કથનનું પછીકરણ નીચે પ્રમાણે છે-બાદર અગ્નિકાય મનુષ્યલેકમાં જ છે. તેથી ઋદ્ધિ પ્રાપ્ત (વૈક્રિય. લબ્ધિસંપન્ન) તિર્યંચ પણ જે મનુષ્યલેકમાં મોજૂદ હોય તો તે અગ્નિકાયની વચ્ચેથી નીકળી જાય છે. જે તે ઋદ્ધિ પ્રાપ્ત પંચેન્દ્રિયતિયચ મનુષ્યલેકની બહાર હય, તે ત્યાં બાદર અગ્નિકાયને અભાવ હોવાથી, તે અગ્નિअयनी १२येथी नीता नयी. “जे ण वीइवएज्जा, से गं तत्थ झियाएज्जा"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧