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प्रमेयचन्द्रिका टीका ० १४ उ०५ सू० १ नै० विशेषपरिणामनिरूपणम् २६३ संभवात् । गौतमः पृच्छति - ' बेइंदियाणं भंते । अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं० ?' हेमन्त ! द्वीन्द्रियाः खलु किम् अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेयुः ? भगवानाह - 'जहा असुरकुमारे तहा बेईदिए वि ' हे गौतम ! यथा असुरकुमाराः पूर्व प्रतिपादितः तथैव द्वीन्द्रियोऽपि प्रतिपत्तव्यः तथा च - विग्रहगतिसमापनको द्वीन्द्रियः अग्निकायस्य मध्येन व्यतिव्रजेत्, अविग्रहगतिसमापनकस्तु कश्चिद्वीन्द्रियः अग्निकायस्य मध्येन व्यतिव्रजेत् कश्चित्त अविग्रहगतिससापन्नको द्वीन्द्रियोऽग्निकायस्य मध्येन नो व्यतिव्रजेदिति भावः । 'नवरं जेणं वीइवएज्जा, से णं तत्थ झियाएज्जा ? हंता, झियाएज्जा' नवरं - विशेविवक्षित है - इसलिये पृथिव्यादिक का गमन स्वतन्त्रता से अग्निकाय के बीच से होकर नहीं हो सकता है।
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अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- ' वेइंदिया णं भंते । अगणिकायस मज्झ मज्झेणं०' हे भदन्त । द्वीन्द्रियादिक जीव क्या अग्निकाय के arat बीच से होकर जा सकते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'जहा असुरकुमारे तहा बेदिए वि' हे गौतम! जैसा असुरकुमार के सम्बन्ध में पहिले कहा जा चुका है वैसा ही दो इन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध के भी कहना चाहिये, तथा च-विग्रहगतिसमापनक दीन्द्रिय अग्निकाय के बीच में से होकर चला जाता है और जो अविग्रहगतिमसमापन्नक द्वीन्द्रिय जीव है - वह कोई एक अग्निकाय के बीचों बीच से होकर चला जाता है और कोई एक उसके बीचों बीच से होकर नहीं जाना है 'नवरं जे णं बीइवएज्जा, से णं तत्थ झियाएज्जा, हंता झियाएज्जा' जा
સ્વતંત્ર ગમનની જ વિવક્ષા હાવાથી એવું કહેવામાં આવ્યુ છે કે અવિગ્રહગતિ સમાપન્નક પૃથ્વીકાય સ્માદિ જીવા અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈ ને
નીકળી શકતા નથી.
गौतम स्वाभीना प्रश्न - " बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झ मज्झेणं० " હે ભગત્રમ્ ! શું ટ્વીન્દ્રિય જીવા અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને જઈ શકે છે ખરાં ? महावीर अलुनो उत्तर- " जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि " डे ગૌતમ ! જેવુ' કથન અસુરકુમાશના વિષયમાં પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન અહી' દ્વીન્દ્રિયાના વિષયમાં પણ થવુ જોઈ એ એટલે કે વિગ્નહુગતિસમાપન્નક દ્વીન્દ્રિય જીવ અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને જઈ શકે છે, પરન્તુ જે અવિગ્રહગતિ સમાપન્નક દ્વીન્દ્રિયા છે તેમાંના કાઈ અગ્નિકાયની વચ્ચે थर्धने भई शता नथी. " नवरं जेणं वीइत्र एज्जा, सेर्ण तत्थ झियाएज्ज,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧