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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १४ उ० ५ सू० १ नै० विशेषपरिणामनिरूपणम् २६१ यः खलु अविग्रहगतिसमापन्नकोऽसुरकुमारोऽग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यनिव्रजेत् । स खल किम् तत्र-अग्निकायस्य मध्ये, ध्मायेत् ? दह्येत् ? भगवानाह-नो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, सः अविग्रहगतिसमापनकोऽमुरकुमारोऽग्निकावस्य मध्ये नो दह्येत, यतो हि न खलु तत्र असुरकुमारे, अग्निशस्त्रं क्रामति-वैक्रियशरीरस्य सूक्ष्मत्वात् तद्गतेः, शीघ्रतरत्वाच्च । प्रकृतमुपसंहरबाह-' से तेणटेणं० ' हे गौतम ! तत्-अथ, तेनार्थेन एवमुच्यतेअस्त्येकः कश्चित् असुरकुमारः अग्निकायस्य मध्येन व्यतिबजेत् , अस्त्येकः कश्चित् अमुरकुमारः अग्निकायस्य मध्येन नो व्यतिव्रजेदिति एवं जाव थणियकुमारे' एवं पूर्वोक्तासुरकुमारवदेव, यावत्-नागकुमारादि, 'एगिदिया जहा नेर इया' एकेन्द्रियाः पृथिवीकायिकादयस्तु यथा नैरयिकाः प्रतिपादितास्तथैव असुरकुमार अग्निकाय के बीचोंबीच से होकर निकलता है वह उससे जलजाता है क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जो इणढे समहे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि 'नो तत्थ सत्थं कमह' उस अविग्रहगतिसमापन्नक असुरकुमार पर इसका-अग्निकायरूप शस्त्र का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। क्योंकि एक तो उसका वैक्रियशरीर सूक्ष्म होता है, और दूसरे उसकी गति शीघ्रतर होती है 'से तेण. टे०' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि कोई असुरकुमार अग्निकाय के बीचों बीच से होकर निकल जाता है और कोई असुरकुमार उसके बीचोंबीच से होकर नहीं निकलता है । 'एवं जाव थणिय. कुमारे' जैसा यह असुरकुमार के लम्बन्ध में कहा गया है-वैसा ही यावत्-नागकुमारादिकों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये 'एगिदिया जहा नेरइया तथा जैसा कथन नैसधिकों के सम्बन्ध में कहा गया हैકુમાર) અગ્નિકાયની વચ્ચે વચ્ચે થઈને નીકળે છે, તે શું તેનાથી બળે છે ખરો ? भावी सुनो त२-" णो इणटे समढे " 3 गीतम ! मे मना शतु नधी २५५ है "नो तत्थ सत्थं कमइ” ते मविशति समापन પર તેના અગ્નિકાય રૂપ શાસ્ત્રને કોઈ પણ પ્રભાવ પડતો નથી, કારણ કે तेनु वैठियशरीर २६५ डाय थे, जी तेनी गति शीत२ सय छे. " से तेणदेणं०" उ गीतम! ते ४२हो में मेवु यु छ । मसुमार અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને નીકળી શકે છે અને કોઈ નીકળી શકતો નથી. " एवं जाव थणियकुमारे " असु२४माना ॥ ४थन नारामारथी साधन स्तनित भा२ सुधीन सपनपति हे विष ५४ सभा. “ एगिदिया जहा શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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