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________________ १६५ , - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१४ उ०१ सू०१ ना० अनन्तरोपपन्नकत्वादिनि० भवन्ति, एवमेव 'जेणं नेरइया विग्गहगइसमावन्नगा, ते णं नेरइया अणंतर परंपर अणुवचन्नगा ये खलु नैरयिकाः विग्रहगतिसमापन्नका भवन्ति, ते खल नैरयिकाः अनन्तरपरम्परानुपपन्नका भवन्ति विग्रहगतौ अनन्तरपरम्पररूपोत्पादद्वयस्याप्यभावात्, तदुपसंहरन्नाह - ' से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव अणुववन्नगावि ' हे गौतम! तत्- अथ तेनार्थेन, यात्रत नैरयिका अनन्तरोपपन्नका अपि परम्परीपपन्नका अपि अनन्तरपरम्परानुपपन्नका अपि भवन्ति, ' एवं निरंतरं जाव वेमाणिया ' एवं पूर्वोक्तरीस्यैव, निरन्तरम् - क्रमशो, यावत्-असुरकुमारादि वैमानिकपर्यन्ता विज्ञेयाः । अथानन्तरोपपन्नकादीनाश्रित्यायुष्यबन्धवक्तव्यतां प्ररूपयितुमाह-' अनंत रोववन्नगाणं भंते! नेरझ्या किं नेरइयाउयं पकरेति ? हे मदन्त ! अनन्तरोपपन्नकाः खलु नैरयिकाः किं नैरयिकायुष्यं प्रकुर्वन्ति ? बन्धन्ति ? 'जेणं नेरइया विग्गहगहसमावन्नगा लेते णं नेरइया अणंतरपरंपर अणुववन्नगा' जो नैरयिक विग्रहगति समापन्नक होते हैं-अर्थात् विग्रहगति में प्राप्त हुए होते हैं - वे अनन्तर परंपर अनुपपन्नक कहे गये हैं- क्यों कि विग्रहगति में अनन्तररूप से और परंपररूप से उत्पाद नहीं होता है । 'से तेणद्वेणं गोयमा ! अणुववन्नगा वि' इस कारण हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि नारक अनन्तरोपपन्नक भी होते हैं, परम्परोपपन्नक भी होते हैं और अनन्तर परम्पर उपपन्नक नहीं भी होते हैं । 'एवं निरं तर जात्र वेमाणिया' इस प्रकार का कथन क्रमशः यावत्-असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक के देवों में जानना चाहिये । अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'अनंतशेववन्नगाणं भंते ! रहा कि नेरइयाउयं पकरे ति' हे भदन्त ! जो अनन्तरोपपन्नक नैरथिक है विग्गहग समावन्नगा तेर्ण नेरड्या अणंतरपरंपर अणुषवन्नगा જે નારા વિગ્રહગતિ સમાપન્નક હાય છે-એટલે વિગ્રહગતિમાં પ્રાપ્ત થયેલા હાય છે. तेमने मनन्तर ३थे भने १२२५२ ३५ उत्पाद थता नथी. " से तेण द्वे गोयमा ! जाव अणुववन्नगा वि " हे गौतम! ते धार में' मे ं 'धु' हे નારકો અનન્તરાપન્નક પણ હાય છે, પરમ્પર।ત્પન્નક પણ હોય છે અને अनन्तश्५२भ्५२ उत्पन्न नथी पशु होता. " एवं निरंतरं जाव वैमाणिया " એજ પ્રકારનું કથન અસુરકુમારાથી લઈને ક્રમશઃ વૈમાનિક દેવા પન્તના જીવા વિષે પણ સમજવુ' જોઇએ. गौतम स्वामीना प्रश्न - " अनंतशेववन्नगाणं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति ? ? मनन्तरोत्पन्न नारी छे तेथे। शु नैरयि मायुष्यना શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧ "
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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