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भगवतीसूत्रे उपपद्यन्ते इत्यभिप्रायेणाह-नवरं-पूर्वापेक्षया विशेषस्तु अत्र असंख्येया भणितव्याः इति भावः ॥ सू० ५ ॥
रत्नप्रभादि विशेषवक्तव्यता। मूलम्-"इमीसे गं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मट्टिी नेरइया उववज्जंति, मिच्छादिट्ठी नेरइया उववज्जति, सम्मामिच्छादिट्टी नेरइया उववज्जति ? गोयमा! सम्मट्टिी वि नेरइया उववज्जति, मिच्छादिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति नो सम्मामिच्छादिट्टी नेरइया उववज्जंति। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्टी नेरइया उव्वति ? एवं चेव। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा किं सम्मदिट्ठीहिं, नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छादिट्टीहि नेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्टीहि नेरइएहिं अविरहिया वा? गोयमा! सम्मदिदिहिं वि नेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्ठीहिं वि नेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्ठीहिं नेरइएहि अविरहिया, विरहिया वा। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिन्नि गमका भाणियव्वा। एवं सकरप्पभाए वि, एवं जाव तमाए वि। अहे सत्तमाए णं भंते! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेज्जवित्थडे नरए कि सम्मदिट्री को लेकर 'नवरं असंखेजा भाणियव्वा' ऐसा कहा गया है। शेष वर्णन अप्रतिष्ठान के समान ही है। सू०५॥ महले " असभ्यातना" प्रयास स थ न . मे पात "नवरं असंखेज्जा भाणियव्वा " म सूत्र द्वारा व्यत ४२वामा भावी छ. ॥सू०५।।
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦