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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१३ उ० १ सू० १ पृथिव्यादिनिरूपणम् ४७१ इया उबटुंति, एवं जाव सन्नी' हे गौतम ! अस्याः खलु रत्नप्रभायाः पृथिव्याः, त्रिंशति नरकाबासशतसहस्रेषु-त्रिशल्लक्षनरकावासेसु संख्येयविस्तृतेषु-संख्येयविस्तारेषु नरकेषु एकसमयेन जघन्येन एको वा. द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येयाः नैरयिका उद्वर्तन्ते, एवं-तथैव-यावत्-कापोतलेश्याः, कृष्णपाक्षिकाः, शुक्लपाक्षिकाः, संज्ञिनश्च जघन्येन एको वा, द्वौ वा यो वा, उत्कृष्टेन संख्येया उद्वर्तन्ते, 'असन्नी ण उबटुंति' असंझिनो नोद्वर्तन्ते तत उद्वर्तनायाः परभवप्रथमसमये सद्भावेन नैरयिकाणामसंज्ञिषु उत्पादाभावादतस्तेऽसंज्ञिनः सन्तस्ततो नोद्वर्तन्ते, इत्युक्तम् , 'जहण्येणं एको वा, दो वा, तिन्नि वा, उको सेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उन्नति, एवं जाव सुय अन्नाणी' जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो जहण्णेणं एको वा, दो वा, तिन्नि वा, उकोसेणं संखेज्जा नेरक्या उच्चइंति, एवं जाव सन्नी' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो ३० लाख नरकावास कहे गये हैं उनमें से जो नरकावास संख्यातयोजन विस्तारवाले हैं उनमें से एक समय में कम से कम एक या दोया तीन नारक कम से कम तो मरकर वहां से निकलते ही हैं और अधिक से अधिक संख्यात नारक मर कर वहां से निकलते हैं। इसी प्रकार से यायत्-कापोतलेश्यावाले, कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक और संज्ञी, जघन्य से एक, दो या तीन और उत्कृष्ट से संख्याततक निकलते हैं । असंज्ञी वहां से उतना नहीं करते हैं अर्थात् उद्वर्तना परभव के प्रथम समय में होती है और नारक जीव असंज्ञी में मरकर उत्पन्न नहीं होता है-इसलिये ऐसा कहा है कि असंज्ञी होकर नारक वहां से उद्वर्तना नहीं करते हैं । 'जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, जहण्णेण एक्कोवा, दोवा, तिन्निवा, उक्कोसेण संखेज्जा नेरइया उववटुंति, एवं जाव सन्नी" मा २त्नप्रभा पृथ्वीना बीस सामन२४पासोमानाने सध्यात જનના વિસ્તારવાળા નરકાવાસે છે તેમાંથી એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત નારકે નરકભાવનું આયુષ્ય પૂરું કરીને નીકળે છે. એ જ પ્રમાણે કાપતલેશ્યાવાળા, કૃષ્ણપાક્ષિક, શુકલપાક્ષિક અને સંજ્ઞી નારકે પણ ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત નીકળે છે. ત્યાંથી અસંજ્ઞી નારકે ઉદ્ધના કરતા નથી કારણ કે ઉદ્વર્તાના પરભવના પ્રથમ સમયમાં થાય છે અને નારકે મરીને અસંજ્ઞીમાં ઉત્પન્ન થતા નથી તેથી જ એવું કહેવામાં આવ્યું छ । असशी मवस्थामा ना२३॥ त्यांथी दत्त ना ४रता नथी. “जहण्णेण एक्को वा, दो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेण संखेज्जा भवसिद्धिया उववटुंति एवं जाव શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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