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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० ४ सू० १ परमाणुपुद्गलनिरूपणम् २५ क्रियते एकतः-एकत्वेन एकभागः परमाणुपुद्गलो भवति, अथ च एकतः-एकतया अपरो भागः परमाणुपृद्गलो भवति । गौतमः पृच्छति-तिमि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नंति एगयो साहणित्ता किं भवइ ?' हे भदन्त ! त्रयः परमाणुपुद्गला, एकत:-एकतया संहन्यन्ते-संहता भवन्ति, एकत्री भवन्ति, इत्यर्थः, एकतः-एकतया संहत्य-संघीभूय मिलित्वेत्यर्थः, किं स्वरूपं वस्तु भवति ? भगवानाह-'गोयमा ! तिप्पएसिए खंधे भवइ' हे गौतम ! त्रयः परमाणुपद्गलाः संहत्य त्रिपदेशिका स्कन्यो भवति, 'से मिज्जमाणे दुहावि तिहावि कज्जई' स त्रिपदेशिकः स्कन्धः, मिद्यपानः, द्विधापि, त्रिधापि क्रियते, तत्र 'दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगया दुप्पएसिए खंघे भवइ' त्रिपदेशिकः स्कन्धो में किया जाता है-तप एक भाग एक पुगलपरमाणु का होता है और दूसरा भाग भी एक पुदल परमाणु रूप होता है। अब गौतम प्रभुसे ऐप्ता पूछते हैं-'तिनि भंते! परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नंति, एगयओ साहणित्ता किं भवइ' हे भदन्त ! तीन पुद्गलपरमाणु एकत्रित जय होते हैं-तच एकरूप में मिले हुए उन पुद्गल परमाणुओं से क्या वस्तु उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! तिप्पएसिए खंधे भवइ' उन एकीभूत हुए तीन पुनल परमाणुओं से त्रिमदेशिक स्कन्ध उत्पन्न होता है । ' से मिजमाणे दुहावि तिहावि कज्जइ' जब इस त्रिप्रदेशी स्कन्धका विभाग किया जाता हैतय यह दो रूप से भी विभक्त होता है और तीनरूप से भी विभक्त होता है 'दुहा कज्जयाणे एगयओ परमाणुपोग्गले. एगयओ दुप्पएसिए ત્યારે તે દ્વિદેશી સકંધના બે ભાગ પાડવામાં આવે છે ત્યારે એક ભાગ એક પરમાણુ રૂપ હોય છે અને બીજો ભાગ પણ એક પરમાણુ રૂપ જ હોય છે. गौतम स्वामीन। प्र-" तिनि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साह नंति, एगयओ साहण्णित्ता किं भवइ " 3 साप ! या am Y५२. માણુઓ એક બીજા સાથે એકત્રિત થઈ જાય છે, ત્યારે તે ત્રણ પુતલપરમાસુઓના સંગથી કઈ વસ્તુ ઉત્પન્ન થાય છે? भावीर प्रभुन। उत्तर-“ गोयमा !" है गौतम“ तिप्पएसिए वंधे भवइ " मेत्र पुरस५२मा यो १3 मे निशि से Grपन्न याय छ " ते भिज्जमाणे दुहावि तिहावि कज्जइ" न्यारे ते विहे. શિક સ્કંધના વિભાગ પાડવામાં આવે છે, ત્યારે બે વિભાગ પણ પડે છે અને १५ KिHIL ५५ ५३ ७. “दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले, एयओ भ०४ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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