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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१२ उ०९ सू०४ भव्य इव्यदेवादिविकुर्वणानिरूपणम् ३२५ पृथुत्वम्-बहुत्वम् अनेकरूपाणि, विकुपितु-विकुर्वणया निष्पादयितुं, प्रभवः-समर्था भवन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! एगतं पि पहू विउवित्तए, पुहुत्तं पि पहू विउवित्तए' हे गौतम! भव्यद्रव्यदेवाः खलु वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः मनुष्यावा, पञ्चेन्द्रियतियग्योनिका वा, एकत्वमपि-एकरूपमपि, विकुक्तुिं प्रभवःसमर्थाः, भवन्ति, अथ च पृथुत्वमपि बहुत्वमपि-अनेकरूपाण्यपि. विकुर्वितुम् , प्रभवः-समर्थाः भवन्ति, तत्र 'एगत्तं विउधमाणे एगिदियरूवं वा, जाव पचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउन्नमाणे एगिदियख्वाणि वा, जाव पंचिंदियरूवाणि वा,' एकत्वम्-एकरूपम् , विकुर्वन्तः, एकेन्द्रियरूपं वा, यावत्-द्वीन्द्रियरूपं वा, त्रीन्द्रियरूपं वा, चतुरिन्द्रियरूपं वा, पञ्चेन्द्रियरूपं वा विकुर्वन्ति, अथ च पृथुत्वम्-अनेकरूउत्तर में प्रभु कहते हैं- गोयमा ! एगत्तं पि पहू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउवित्तए' हे गौतम ! भव्यद्रव्यदेव-वैक्रियलब्धिसंपन्न मनुष्य एवं पंचेन्द्रियतिर्यश्च-एकरूप की भी अपनी वैक्रियशक्तिद्वारा विकुर्वणा करने में समर्थ होते हैं, और अनेक रूपों की भी अपनी वैक्रियशक्ति द्वारा विकुर्वणा करने में समर्थ होते हैं। इनमें यदि वे 'एगत्तं विउ. ज्वमाणे एगिदियरूवं वा, जाव पंचिंदियरुवं वा, पुत्तं विउव्वमाणे एगिदियख्वाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणिवा' अपनी विक्रियाशक्ति द्वारा जब एक रूप की विकुर्वणा करते हैं-एक रूप को निष्पन्न करते हैं-तष वह एकरूप किसी भी एकेन्द्रिय जीव का हो सकता है, अर्थात् वे किसी भी एकेन्द्रिय जीव के रूप को बना सकते हैं-किसी भी दो इन्द्रिय जीव के रूप को बना सकते हैं, किसी भी तेइन्द्रिय जीव के रूप को बना सकते हैं, किसी भी चौइन्द्रिय जीव के रूप को बना सकते हैं, तथा किसी भी पंचेन्द्रिय जीव के एक रूप को बना सकते हैं। पभू विउवित्तए " ३ गौतम ! १०५०२३१-वैयिसपन्न मनुष्य अन પંચેન્દ્રિયતિર્યંચ-પોતાની વિદુર્વણ શક્તિદ્વારા એક રૂપની પણ વિકૃધણા કરવાને સમર્થ હોય છે, અને અનેક રૂપની પણ પિતાની વૈક્રિય શક્તિદ્વારા विga'ए। ४२वाने समय य छ ब्यारे तो “ एगत्तं विउच्चमाणे एगिदियरूवा, जाव पंचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउव्वमाणे एगि दियावाणि वा जाव पंचिदियरूवाणि वा” पातानी वैठियति द्वारा मे ३५नी विव' रे छ, ત્યારે જે એક રૂપ નિષ્પન્ન થાય છે તે કઈ એકેન્દ્રિય જીવનું પણ હોઈ શકે છે, દ્વીન્દ્રિય જીવનું પણ હોઈ શકે છે, ત્રીન્દ્રિય જીવનું પણ હોઈ શકે છે,ચતુરિન્દ્રિય જીવનું પણ હોઈ શકે છે, પંચેન્દ્રિય જીવનું પણ હોઈ શકે છે એટલે કે તે પિતાની વૈક્રિયશક્તિ દ્વારા કોઈ પણ એકેન્દ્રિય જીવના શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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