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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२३०५ सू०२ प्राणातिपातादिविरमणनिरूपणम् १७३ अथ जीवस्वरूप विशेषमेवाधिकृत्य गौतमः पृच्छति - अहभंते ! उपत्तिया, वेणइया, कम्मिया, पारिणामिया, एस णं कइवन्ना ? हे भदन्त ! अथ औत्पत्तिकी उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी स्वभावाज्जायमाना बुद्धिः सा हि अन्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकं नापेक्षते, क्षयोपशमप्रयोजनं तु सर्वबुद्धिसाधारणम् वर्तते अत स्तनात्र विवक्षितम् १ | वैनयिकी - विनयो गुरुशुश्रूषा शास्त्राभ्यासादिः स कारण मस्याः, तस्पधाना वा, बुद्धि: - वैनयिकी२। कार्मिकी कर्म अनाचार्यकम्, साचायेकं शिल्पं कादाचित्कं वा कर्म तस्माज्जाता कार्मिकीबुद्धि: ३, पारिणामिकी
अब गौतम जीव के स्वरूप विशेष को लेकर प्रभु से ऐसा पूछते हैं-' अह भंते! उपत्तिया, वेणइया, कम्मिया, पारिणामिया, एस णं कइवन्ना' हे भदन्त ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी ये जो चार बुद्धियां हैं-वे कितने वर्णों वाली हैं? कितने गन्धोंवाली हैं? कितने रसोंवाली हैं और कितने स्पर्शो वाली हैं ? उत्पत्ति यही जिसका प्रयोजन है, परन्तु जिसे शास्त्र, कर्म और अभ्यास आदि की अपेक्षा नहीं है वह औत्पत्तिकी बुद्धि है यह बुद्धि स्वभाव से ही उत्पन्न होती है यद्यपि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशमरूप प्रयोजन सर्व बुद्धियों में सापेक्ष होता है परन्तु उसकी यहां विवक्षा नहीं है । जिस बुद्धि में गुरु विनय - गुरुसेवा, शास्त्राभ्यास आदि कारणभूत हैंयह वैनयिकी बुद्धि है - कर्म - अनाचार्यक, अथवा साचार्यक शिल्प रूप कर्म से जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह कार्मिकी बुद्धि है। चिरकालतक
હવે ગૌતમ સ્વામી જીવના સ્વરૂપવિશેષને અનુલક્ષીને મહાવીર પ્રભુને शोवो प्रश्न पूछे छे - " अह भंते ! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, पारिणामिया, एसणं कइ वण्णा ?" डे लगवन् ! त्यत्तिही, वैनयिडी, अभिंडी भने पाि शाभिङी, या यार थे युद्धियो छे, ते टला वर्षावाणी, डेंटली गंधवानी, કેટલા રસવાળી અને કેટલા સ્પશ વાળી કહી છે ?
આ બુદ્ધિનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનુ` છે–ઉત્પત્તિ એજ જેનુ' પ્રયેાજન છે, પરન્તુ જેને શાસ્ત્ર, કમ અને અભ્યાસ આદિની અપેક્ષા રહેતી નથી, એવી બુદ્ધિનુ નામ ઔપત્તિકી બુદ્ધિ છે. આ બુદ્ધિ સ્વાભાવિક રીતે જ ઉત્પન્ન થાય છે. જો કે જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના ક્ષપશમ રૂપ પ્રયેાજન તેા સ બુદ્ધિએમાં સાપેક્ષ હાય છે, પરન્તુ અહીં તેની વાત કરી નથી. જે બુદ્ધિની પ્રાપ્તિમાં ગુરુવિનય-ગુરુની સેવા, શાસ્ત્રાભ્યાસ આદિ કારણભૂત હોય છે, તે બુદ્ધિને વૈનયિકી બુદ્ધિ કહે છે, કમ-અનાચાયક અથવા સાચાક શિલ્પરૂપ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦