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भगवतीसूत्रे णोपासिकाम् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण, अबादीत् , 'कहिणं देवाणुप्पिए ! संखे समणोबासए ?' हे देवानुपिये ! कुत्र खलु स्थाने शङ्खः श्रमणोपासको वर्तते ?। 'तरणं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलं समणोवासगं एवं वयासी'-ततः खलु सा उत्पला श्रमणोपासिका पुष्कलिं श्रमणोपासकम् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत-' एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरइ' भो देवानुप्रियाः! एवं खलु शङ्खः श्रमणोपासकः पौषधशालायां पौषधिको ब्रह्मचारी यावत्-उन्मुक्तमणि सुवर्णः, व्यपगतमालावर्णकविलेपना, निक्षिप्तशस्त्रमुशलः, एकोऽद्वितीयः दर्मसंस्तारकोपगतः, पाक्षिकं पौषध प्रतिजाग्रत्-अनुपालयन् विहरति-तिष्ठति । 'तएणं से पोकवली समणोवासए जेणेव णोपासिका उत्पला से ऐसा कहा-'कहिणं देवाणुपिए ! संखे समणोवासए' हे देवानुप्रिये! श्रमणोपासक शंख कहां है ? 'तएणं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलं समणोवासग एवं वयासी' तब उस श्रमणो. पासिका उत्पला ने उस श्रमणोपासक पुष्कली से ऐसा कहा-'एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरई' हे देवानुप्रिय श्रमणोपासक शंख इस समय पौषधशाला में पाक्षिक पौषध लेकर बैठे हुए हैं। ब्रह्मचर्यव्रत से वे इस समय रह रहे हैं। मणि और सुवर्ण का इस समय उन्होंने बिलकुल त्याग कर रखा है। माला और विलेपन का वे इस समय नाम तक नहीं लेते हैं। शस्त्र और मुशल आदि का उन्होंने इस समय बिलकुल त्याग कर दिया है। पौषधशाला में वे बिलकुल इस समय अकेले हैं । तथा दर्भके आसन पर उन्होंने अपना आसन जमा रखा है। 'तरण से पोक्खली ५७\-" कहिणं देवाणुप्पिए ! संखे समणोवासए ?” र वानुप्रिये ! श्रभास श५ ४यां छ? "तएण सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलं समणोवासंग एवं वयासी" त्यारे ते Erval श्रावि ते पुदी श्रावन मा प्रमाणे :-" एवं खलु देवाणुपिया ! संखे समणोवासए पोसह सालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरइ" 3 देवानुप्रिय ! शमश्रा१४ मत्यारे पाक्षि: પૌષધ કરીને પૌષધશાળામાં બેઠા છે. તેઓ અત્યારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં સ્થિર છે, તેમણે મણિ અને સુવર્ણને અત્યારે સર્વથા ત્યાગ કરેલ છે, માલા, વિલેપન આદિને પણ તેમણે અત્યારે પરિત્યાગ કરે છે ખડગ, મુશલ આદિ શસ્ત્રોને તેમણે પરિત્યાગ કર્યો છે. તેઓ અત્યારે એકલાં જ પૌષધશાળામાં દર્ભના આસન પર બેસીને પિષધેપવાસની આરાધના કરી રહ્યા છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯