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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० ११ सू. १ कालव्यनिरूपणम् ४५५ निर्गत्य, यत्रैव-तिपलाशकं चैत्यमुद्यानम् आसीत् , यत्रैव-श्रमणो भगवान् महावीर आसीत् , तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छइ ' उपागत्य श्रमण भगवन्तं महावीरं पञ्चविधेनवक्ष्यमाणपञ्चप्रकारेण अभिगमेन अभिगच्छति-अभिमुखं गच्छति ' तंजहासचित्ताण दव्वाण जहा उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणया पज्जुवासई' तद्यथा-सचित्तानां द्रव्याणां परित्यागेन १, यथा ऋषभदत्तो नवमशतकस्य त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशके प्रतिपादितस्तथैवायमपि सुदर्शनः प्रतिपत्तव्यः, स सुदर्शनो नाम कोरंटपुष्पों की माला से युक्त छत्र लगा हुआ था 'निगच्छित्ता जेणेव दूइपलासए चेहए, जेणेव भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ।' चल कर वह जहां दूतिपलाशक उद्यान था, और उस में जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहां पर आया वहां 'उवागच्छित्ता समण भगवं महावीरं पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छह' आकरके वह श्रमण भगवान महावीर के पास पांच प्रकार के अभिगम से युक्त हुआ पहुँचा तंजहा' वे पांच प्रकार के अभिगम इस प्रकार से हैं'सचित्ताण दवाणं जहा उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जवासड' सचित्तद्रव्यों का परित्याग करना जैसा कि १, यावतअचित्त द्रव्यों का-वस्त्राभरणादिकों का परित्याग नहीं करना २, एकशाटिक से (विनासिये वस्त्र से ) उत्तरासंग करना ३, देखते ही अंजलि जोडना ४, और मनका एकाग्र करना ५, वहां पहुंचकर उस नौवे शत. कके३३३ उद्देशक में ऋषभदत्त के विषय में जैसा कथन किया गया हैवैसा ही कथन यहां सुदर्शन के विषय में भी जान लेना चाहिये।
मा ध्या, मन वाशियाम नगरना मध्यमा थने, निग्गच्छित्ता जेणेव दुइपलासए चेइए, जेणेव भगवौं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ" तिलाश ચૈત્યમાં આવી પહોં, ત્યાર બાદ તે જ્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર બિરા
त तर ते त२६ मागण ध्या. “ उधागच्छिता समण भगवं महावीर पंचविहेण अभिगमेण अभिगच्छइ तंजहा" नीय विसा पांय मारना मनिगम पूर्व ते महावीर प्रभु पासे गया. "सचित्ताण दव्वाण जहा उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ" सथित्त द्रव्याना परित्याग આદિ પાંચ અભિગમ નવમાં શતકના ૩૩ માં ઉદ્દેશામાં કાષભદત્ત બ્રાહ્મણના સંબંધમાં જેવું કથન કરવામાં આવ્યું છે, જેમ કે-ચાવત અચિત્ત પ્રત્યેનુંવસ્ત્રાભરણ વિગેરેને પરિત્યાગન કર. ૨ એકશાટિકથી (વગરસિવેલા વસ્ત્રથી) ઉત્તરાસંગ કર. ૩ જોઈને જ અંજલી જેડવી. ૪ અને મનને એકાગ્ર કરવું. ૫ ત્યાં જઈને સુદર્શન શેઠે મન, વચન અને કાયાથી શ્રમણ ભગવાન
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯