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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श० ११ उ० १० सू०२ लोकालोकपरिमाणनिरूपणम् ४३३ असम्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरत्थाभिमुहे पयाए, एगे देवे दाहिणपुरस्थाभिमुहे पयाए, एवं जाव उत्तरपुरत्थाभिमुहे, एगे देवे उडाभिमुहे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए' हे गौतम ! ते खलु देवाः तया उत्कृष्टया-विलक्षणया यावत्-त्वरितया, चपळया, चण्डया, सिंहया, उद्धतया, जयिन्या, छेकया, दिव्यया देवगत्या लोके स्थित्वा असद्भावप्रस्थापनया-असद्भूतार्थ कल्पनया एको देवः पौरस्त्याभिमुखः प्रयातः-प्रस्थितः, एको देवो दक्षिणपौरस्त्याभिमुखः प्रयातः, एवंपूर्वोक्तरीत्या-यावत्-एको देवो दक्षिणाभिमुखः प्रयातः, एको देवो दक्षिणपश्चिमाभिमुखः प्रयातः, एको देवः पश्चिमाभिमुखः प्रयातः, एको देवः, पश्चिमोत्तराभिमुखः प्रयातः, एको देवः उत्तराभिमुखः प्रयातः, एको देवः उत्तरपौरस्त्याभिमुखः, एको देवः अर्वाभिमुखः एको देवः अधोमुखः उकिट्ठाए जाव देवगईए लोगसि ठिच्चा' असब्भावपटमगाए एगे देवे पुरस्थाभिमुहे पयाए, एगे देवे दाहिणपुरस्थाभिमुहे पयाए, एवं जाव उत्तरपुरत्याभिमुहे पयाए, एगे देवे उड्डाभिमुहे, एगे देबे अहोभिमुहे पयाए' हे गौतम ! वे देव उस उत्कृष्ट-विलक्षण यावत् त्वरिता, चपला, चण्डा, सिंहा, उधूता, जयिनी, छेका और दिव्या विशेषणों वाली देवगति से मानों चलकर लोक के अन्त में पहुंच जावें और वहाँ से फिर उनमें से कोई एक देव इसी गति से चलकर पूर्वदिशा की तरफ चला जावे, एक देव दक्षिण पूर्व की तरफ चला जावे, इसी प्रकार से यावत् एक देव दक्षिण दिशा की तरफ चला जावे, एक देव दक्षिणपश्चिम की तरफ चला जावे, एक देव पश्चिमदिशा की तरफ चला जावे, एक देव पश्चिम उत्तरदिशा की तरफ चला जावे, एक देव उत्तरदिशा की तरफ " सेण गोयमा! देवा ताए उक्किद्वाए जाव देवगईए लोगसि ठिच्चा असब्भावपट्टवणाए एगे देवे पुरत्थाभिमुहे पयाए, एगे देवे दाहिणपुरत्याभिमुहे पयाए, एवं जाव उत्तरपुरत्थाभिमुहे पयाए, एगे देवे उड्डाभिमुहे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए" है गौतम ! तो पोतानी ष्ट (विलक्ष), परिता, २५सा, या સિંહા, ઉધૂતા, જયિની, દિવ્યા વગેરે વિશેષાવાળી દેવગતિથી ચાલીને ધારે કે (આ કલપનાને જ વિષય છે. સંભવી શકે એવું નહીં હોવાથી ધારવાનું કહ્યું છે) લોકના અન્ત ભાગમાં પહોંચી જાય છે. હવે ત્યાંથી એક દેવ પોતાની એવી જ ગતિથી પૂર્વ દિશામાં ચાલવા માંડે, એક દેવ અગ્નિ કેણમાં ચાલવા માંડે, એક દેવ દક્ષિણ દિશામાં ચાલવા માંડે, એક દેવ નેત્રત્ય કોણમાં ચાલવા માંડે, એક પશ્ચિમમાં, એક વાયવ્ય કેણમાં એક ઉત્તરમાં અને એક ઈશાનમાં ચાલવા માંડે, એક દેવ ઉર્વ દિશામાં ચાલવા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯