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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ११ उ० १० सू० १ लोकस्वम्पनिरूपणम् ३९५ स्तिर्यग्लोकः, तथा ऊर्ध्वम् शुभः परिणामो द्रव्याणां वाहुल्येन यत्रासौ ऊर्श्वलोकः, तथा चोक्तम्-'अहव अहो परिणामो खेत्ताणुभावेण जेण ओसणं । असुहो अहोत्ति भणिो दवाणं तेणाऽहोलोगो ॥१॥ छाया-अथवा अधः परिणामः क्षेत्रानुभावेन प्रायशः। अशुभः अध इति भणितः द्रव्याणां तेनाधोलोकः ॥ इत्यादि, एवं तिर्यगूप्रलोकविषयेऽपि विज्ञेयम् । तमेव पञ्चदशविधम् ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकं प्रतिपादयति-तंजहा-सोहम्मकप्पउलोगखेत्तलोए, जाव अच्चुयउडलोयखेत्तलोए, गेवेज्ज विमाणउडलोयखेत्तलोए, अणुत्तरविमाणउडलोयखेत्तलोए, इसि पन्भारपुढवि उड्डलोगखेत्तलोए' तद्यथा-१सौधर्मकल्पो लोकक्षेत्रलोकः, यावत्-ईशानको लोकक्षेत्रलोकः,३ सनत्कुमार-४माहेन्द्र-५ब्रह्मलोक-६लान्तक-७महाशुक्र-८सहस्रा-९राऽऽनत-१०माणताऽऽ११रणाऽ१२च्युतोर्वलोकक्षेत्रलोकाः, १३वेयकविमानो लोकक्षेत्रलोकः, १४अनुत्तरविमानो तिर्यक्लोक है। और जहां पर बहुतकरके द्रव्यों का परिणाम शुभ होता है वह ऊर्ध्वलोक है। सो ही कहा है-' अहव अहो परिणामो' इत्यादि । इसी प्रकार से तिर्यग्लोक ऊर्ध्वलोक के विषय में भी जानना चाहिये ऊर्चलोक रूप क्षेत्र पन्द्रह प्रकार का किस प्रकार से है-सो सुत्रकार इसी घात को प्रकट करने के लिये कहते है ' तंजहा-सोहम्मकप्प उडुलोगखेत्तलोए, जाव अच्चुय उडलोयखेत्तलोए, गेवेजविमाण उडलोयखेत्तलोए अणुत्तरविमाणउड्डलोयखेत्तलोए, इसिं पन्भारपुढवि उडलोपखेत्त. लोए' सौधर्मकल्प ऊर्बलोकरूप क्षेत्रलोक १, यावत्-ईशानकल्पऊवं. लोकरूपक्षेत्रलोक २, सनत्कुमार ३-माहेन्द्र ४ - ब्रह्मलोक ५-लान्तक ६महाशुक्र ७-सहस्रार ८-आनत ९-प्राणत १०-आरण ११-अच्युत १२ ક્ષેત્રને તિર્યક કહે છે. જ્યાં મોટે ભાગે દ્રવ્યનું પરિણામ શુભ હોય છે, તે ક્ષેત્રનું નામ ઉર્વલેક છે. मे पात “ अहव अहो परिणामो" त्या सूत्र १२॥ ६८ ४२॥ छ. मेरा प्रमाणे ति4213 Seqat विषे ५७४ सम४. “ तंजहा " Bet. લોક રૂપ ક્ષેત્રના ૧૫ પ્રકારે નીચે પ્રમાણે છે “सोहम्मकप्पउङ्घलोगखेत्तलोए, जाव अच्चुयउडलोयखेत्तलोए, गेवेज विमाणउड्डलोयखेत्तलोए, अणुत्तरविमाण उड्डलोयखेत्तलोए, इसिंपब्भारपुढवि उड्डलोय. खेत्तलोए" (1) सौषम ८५ Sarals ३५ क्षेत्रो, (२) शान८५ q. ३५ क्षेत्र, (3) सनमा२, (४) मान्द्र, (५) ब्रह्मदे) airds, (७) भाशु, (८) सखार (6) मानत, (१०) आधुत, (११) भा२५ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯
SR No.006323
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 09 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages760
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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