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भगवतीसूत्रे पुट्ठाई, जाव घडत्ताए चिट्ठति ?' हे भदन्त ! अस्ति-संभवति खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे द्रव्याणि किं सवर्णान्यपि भवन्ति, अवर्णान्यपि भवन्ति, एवमेव सगन्धान्य पि, अगन्धान्यपि, सस्पर्शान्यपि, अस्पर्शान्यपि, अन्योन्यबद्धानि-परस्परगाढाश्लेषण संबद्धानि, अन्योन्यस्पृष्टानि, यावत्-श०१-उ०६ अन्योन्यावगाढानि-परस्परमेकीभावं प्राप्तानि अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धानि-अन्योन्यं स्निग्धतया संबद्धानि, अन्योन्यसमभरघटतया, समोन विषमः घटस्य सर्वदेशाश्रितत्वेन भरो जलसमुदायो यत्र स समभरः, सर्वथा भृतो वा समभरः समशब्दोऽत्र सर्वार्थवाचका, स चासौ घटश्चेति समभरघटः, तस्य भावस्तता तया, सर्वथा भृतघटाकार-तयेत्यर्थः तिष्ठअन्नमन्नबद्धाइं अन्नमन्नपुट्ठाइं जाव घडताए चिट्ठति' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नाम के द्वीप में क्या वर्णसहित, वर्णरहित, गंधसहित, गंधरहित, रससहित, रसरहित और स्पर्शसहित, स्पर्शरहित भी द्रव्य परस्पर गाढश्लेष से संबद्व हो कर तथा आपस में स्पृष्ट होकर रहते हैं ? यहां यावत् शब्द से-'अन्योन्यावगाढानि, अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धानि, अन्योन्यसमभर" इन पदों का संग्रह हुआ है। परस्पर में एकीभाव को प्राप्त हो कर रहना इसका नाम अन्योन्यावगाढ है, तथा परस्पर में स्निग्ध गुणको लेकर संघद्ध होकर रहना इसका नाम अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्ध है। तात्पर्य-पूछनेका यह है कि जिस प्रकार घट में भरा हुआ जल उस घट में सम्पूर्णरूप से भरा रहता है-वह उसमें सम विषम रूप से भरा हुआ नहीं रहता है-किन्तु घट के सर्वदेशों में व्याप्त होकर भरा रहता है-अथवा सर्वथा भरा रहता है-यहां सम शब्द सर्व अर्थका पि अफासाई पि, अन्नमन्नबद्धाई अन्नमन्नपुट्ठाई जाव घडताए चिटुंति ?" હે ભગવન્ ! શું જંબૂદ્વીપમાં વર્ણસહિત, વર્ણરહિત, ગંધ સહિત, ગંધરહિત, રસસહિત, રસરહિત, સ્પેસહિત અને સ્પર્શ રહિત દ્રવ્ય પણ પરસ્પર ગાઢ
શ્લેષથી સંબદ્ધ થઈને તથા આપસમાં પૃષ્ટ થઈને એક બીજાને સ્પશીને) २सा डाय छ भरा ? मही' “जाव (यावत् ) ५४थी “अन्योन्यावगाढानि, अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धानि, अन्योन्यसमभर” मा पोनी सड थयो छे.
પરસ્પરમાં ચિય ભાવથી યુક્ત થઈને રહેવું તેનું નામ “અન્યાવગાઢ છે. તથા સ્નિગ્ધતા (ચિકાશ) ના ગુણને લીધે સંબદ્ધ થઈને રહેવું તેનું નામ “અન્ય નેહપ્રતિબદ્ધ” છે. આ પ્રશ્નને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે જેવી રીતે ઘડામાં ભરેલું પાણી તે ઘડામાં સંપૂર્ણ રૂપે ભરેલું રહે છે. તે તેમાં સમ વિષમ રૂપે ભરેલું રહેતું નથી, પરંતુ ઘડાના સર્વ દેશમાં વ્યાપેલું होय छ अथवा सय ३३ मयुर छे (मी “ सम" ५६ ‘स
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯