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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११३० ३ सू० १ पलाशजीवनिरूपणम २८७ एतेषु पलाशेषु न उत्पद्यन्ते, पलाशस्त्याप्रशस्तत्वात् , देवानां च प्रशस्तेष्वेव उत्प लादि वनस्पतिषु उत्पत्तिसंभवात् , अतएव उत्पलोद्देशके देवेभ्यः उत्ता उत्प. धन्ते इत्युक्तम् । गौतमः पृच्छति-'लेसासु-देणं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा?' हे भदन्त ! लेश्यासु पइविधासु मध्ये लेश्याद्वारे इत्यर्थः, ते खलु जीवाः किं कृष्णलेश्या भवन्ति ? किंवा नीललेश्या भवन्ति ? किंवा कापो. तलेश्या भवन्ति ? भगवानाह-'गोयमा कण्ह लेस्सा वा, नोललेस्सा वा, काउले. स्सा वा, छत्रीसं भंगा, सेसं तंवेव' हे गौतम ! पलाशजीवाः कृष्णलेश्या वा भवन्ति, नीललेश्या वा भवन्ति, कापोतलेश्या वा भवन्ति, एवं रीत्या उत्पलोक्तप्रदर्शित की गई है । देव जो पलाश बनस्पति में उत्पन्न नहीं होते हैं इसका कारण यह है कि पलाश वनस्पति अप्रशस्त वनस्पति है। अप्रशस्त वनस्पतियों में देवों का उत्पाद नहीं होता है। प्रशस्त वनस्पतियों में उत्पलादि जैसी सुन्दर बनस्पतियों में ही इनका उत्पाद होता है। इसीलिये उत्पलोद्देशक में “देवों से चवकर जीव उत्पलों में उत्पन्न होते हैं" ऐसा कहा है। ____ अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'लेसासु णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा' हे भदन्त ! छह प्रकार की लेश्याओंमें से ये जीव क्या कृष्णलेश्यावाले होते हैं या नीललेश्यावाले होते हैं, या कापोतलेश्यावले होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा' हे गौतम ! पलाश जीव कृष्णलेश्यायाले भी होते हैं, नीललेश्यावाले भी होते हैं और कापोतलेश्यावाले भी होते हैं ? इस प्रकार નથી. દે ત્યાં ઉત્પન્ન ન થવાનું કારણ એ છે કે પલાશ અપ્રશસ્ત વનસ્પતિ ગણાય છે. અપ્રશસ્ત વનસ્પતિઓમાં દેવની ઉત્પત્તિ થતી નથીપ્રશસ્ત વનસ્પતિમાં જ- ઉત્પલાદિ જેવી સુંદર વનસ્પતિમાં જ દે ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી જ ઉત્પલદ્દેશકમાં એવું કહ્યું છે કે દેવગતિમાંથી ઍવીને જીવ ઉત્પલેમાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે. ” गौतम २१॥भीना प्रश्न- “ लेसासु ण भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा ?" उसमन्! ते ४ ४ ४ वेश्यामवाणा होय છે? શું કણ લેશ્યાવાળા હોય છે? કે નીલ લેફ્સાવાળા હોય છે કે કાત લેશ્યાવાળા હોય છે ? મહાવીર પ્રભુને ઉત્તર- હે ગૌતમ! પલાશસ્થ જી કૃષ્ણ લેશ્યાવાળા પણ હોય છે, નીલ લેફ્સાવાળા પણ હોય છે અને કાપેતલેશ્યાવાળા પણ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯
SR No.006323
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 09 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages760
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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