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________________ २७० भगवतीसूत्रे न्तरं मनुष्यादिगति गच्छेत् , उत्कृष्टेन संख्येयानि भवग्रहणानि सेवेत, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेज कालं, एवइयं काल सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागति कज्जइ' कालादेशेन कालापेक्षया जघन्येन द्वे अन्तर्मुहूर्त-द्वीन्द्रियत्वेन अन्तर्मुहूर्त पुनरुत्पलत्वेनान्तर्मुहूर्त्तमित्येवं कालादेशेन जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टेन संख्येयं कालम् , इयन्तं कालं से वेत, इयन्तं कालं गतिमागति-गमनागमनं करोति, एवं तेइंदियजीवे वि' एवं-द्वीन्द्रियोक्तरीत्या त्रीन्द्रियजीवः एवमुक्तरीत्यैव चतुरिन्द्रियजीवोऽपि बोध्यः, तथा च-उत्पल जीवः उत्पलजीवत्वं परित्यज्य श्रीन्द्रिय जीवोभवेत्-एवं चतुरिन्द्रियजीवो भवेत् , अथ च पुनरपि उत्पलजीवो भवेत् इति. तत्तद् भवान्तरात् पुनस्तद् भवग्रहणे कियन्तं कालं गतिमागतिं कुर्यात् इति प्रश्ना, जघन्य दो भवग्रहणरूप एक भव द्वीन्द्रिय में रहने तक के कालका और दूसरा भव उत्पल में रहने तक के कालका सेवन करता है, इसके बाद वह मनुष्यादि गति में चला जाता है । तथा उस्कृष्ट से संख्यात भवग्रहण रूप कालका सेवन करता है। कालकी अपेक्षासे वह जघन्य में दो अन्तर्मुहूर्तरूप कालका और उत्कृष्ट से संख्यात कालका सेवन करता है। इस प्रकार वह इतने कालतक गमनागमन करता है। 'एवं तेइंदियजीवे एवं चारिदियजीवे वि',इस दो प्रकार इन्द्रिय वाले जीव के कथन के अनुसार त्रीन्द्रियजीव और चौइन्द्रियजीव भी जानना चाहिये तथा उत्पल जीवत्व को छोडकर त्रीन्द्रियजीव हो जाता हैं चौहन्द्रियजीव हो जाता है और पुनः वह वहांसे मरकर उत्पलजीव हो जाता है-इस प्रकार उस भवान्तर से पुनः उस उत्पल भरके ग्रहण करने में वह कितने कालका सेवन करता है-किनने कालतक गमनागमन करता ઓછા બે ભવડ રૂપ કાળનું સેવન કરે છે એટલે કે-એક ભવ દ્વીન્દ્રિમાં રહે છે અને બીજે ભવ ઉત્પસમાં રહે છે. ત્યાર બાદ તે મનુષ્યાદિ ગતિમાં ચાલ્યા જાય છે. તથા ઉત્કૃષ્ણની અપેક્ષાએ તે સંખ્યાત ભવગ્રહણ રૂપ કાળનું સેવન કરે છે. કાળની અપેક્ષાએ તે ઓછામાં ઓછા બે અન્તર્મુહૂર્ત રૂપ કાળનું અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત કાળનું સેવન કરે છે. આ રીતે આટલા आज पर्यन्त गमनागमन ४ा 3रे छे, “एवं तेइंदिय जीये, एवं चरिदियजीवे वि" मे०४ प्रमाणे त्रीन्द्रिय अने, सतुरिन्द्रिय ७१ विष ५६५ सम. એટલે કે ઉપસ્થિ જીવ જે ઉત્પલપર્યાયને છોડીને ત્રીન્દ્રિય અથા ચતુરિન્દ્રિય જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય અને ત્યાંથી કરીને ફરીથી ઉત્પલ જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય, તે આ રીતે તે પ્રત્યેક ભવાન્તરમાંથી ફરીથી ઉ૫લભવમાં આવવામાં શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯
SR No.006323
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 09 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages760
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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