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________________ भगवतीसूत्रे अतएव लष्टं-मनोहरम् तथा पश्चापीन्द्रियाणि, पटूनि-स्व स्वविषयाग्रहणदक्षाणि यत्र तत्तथा, प्रथमयौवनस्थम्, नवयौवनशालि ' अणेगउत्तमगुणेहिं संजुत्तं' अनेकोत्तमगुणैः संयुक्तम् , ' तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! नियगसरीररूवसोहग्गजोब्बणगुणे' तत् तस्मात् कारणात् हे जात ! हे पुत्र ! अनुभव परिसुन तावत् यावत् नियतशरीररूपसौभाग्ययौवनगुणम् , ' तो पच्छा अणुभूय नियगमरीररूवसोहग्गाजोव्वगगुणे, अम्हे हिं कालगएहि समाणेहिं परिणयवये वड़ियकुलवंसतंतुकज्जमि निरवयक्खे' ततः पश्चात् अनुभूतनियतशरीररूपसौभाग्ययौवनगुणः, अनुभूतः परिभुक्तो नियतशरीररूपसौभाग्ययौवनगुणो येन स तथा, अस्मासु कालगतेषु सत्सु परिणतवयाः प्राप्तद्धावस्थः सन् वतिकुलवंशतन्तुकार्ये निरपेक्षः सन् ' समणस भागवओ महावीरस्स अंतिए वर्णादि रूप गुणोंसे यह युक्त है, इसीसे यह लष्ट-मनोहर है तथा इसकी ये पांचोंही इन्द्रियां अपने २ विषयभूत स्पर्श आदि गुणोंको ग्रहण करने में समर्थ हैं, यह नवयौवनश्रीसे सुशोभित हो रहा है, 'अणेश उत्तमगुणेहिं संजुत्ते' तथा और भी कितनेक अनेक उत्तम २ गुणोंसे यह युक्त बना हुआ है 'अणुहोहि ताव जाव जाया! नियग सरीररूवसोहग्गजोव्वणगुणे' अतः हे पुत्र ! तुम सबसे पहिले अपने इस शरीरके रूप, सौभाग्य एवं यौवन सम्बन्धी गुणोंको और शौर्य औदार्य आदि गुणोंको भोगो, बादमें ' अम्हेहि कालगएहि समाणेहि परिणयवये वड्रियकुलवंसतंतुकमि निरवयक्खे' हम लोग जय काल ग्रसित हो जावें और तुम जब कुलवंश रूप तन्तुकी वृद्धि करने रूप कार्यमें निरपेक्ष हो जाओ तब वृद्धावस्थामें 'समणस्स भगवओ पडुयं पढमजोवणत्थं " पातपित्त मान्य यातना तमi Aमा छ, ઉત્તમ વદિ રૂપગુણેથી તે યુક્ત છે અને તેથી તે મનોહર લાગે છે, તારા શરીરની પાંચે ઈન્દ્રિય સ્પર્શાદિ તિપિતાનાં કાર્યો કરવાને સમર્થ છે, અને ते नवयौवनयी सुमित छ. " अणेगउत्तमगुणेहिं संजुत्ते" तm भी ५५५ भने उत्तम शाथी ते युत छ, “ अणुहोहि ताव जाव जाया ! नियम सरीररुवसोहग्गजोव्वणगुणे" तेथी पुत्र! तु भौथी पडसा 24॥ शरीरन। ३५ने, सोमायने यौवनने भने शीय, मोहाय मह गुणाने सागकी से. “अम्हे हि कालगहि समाणे हिं परिणयवये वडियकुलवं सततुकज्जंमि निरवयक्खे " ત્યાર બાદ અમે જ્યારે કાળધર્મ પામીએ, અને કુળવંશરૂપ તત્ત્વની (વેલાની) વૃદ્ધિ કરીને સંસારમાં કઈ પણ કાર્યમાં તારી અપેક્ષા ન રહે ત્યારે વૃદ્ધાपस्यामा " समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिर मुडे भवित्ता अगाराओ अण श्री. भगवती सूत्र : ८
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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