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________________ - प्रमेय सन्धिका टी०।०९उ०३३ सू० ४ जमालिवक्तव्यनिरूपणम् यावत् कृतकौतुकमंगलपायश्चित्ताः कृतं कौतुकं मपीतिलकादिकम् , मङ्गलम्अक्षतादिरूपम , एतद्द्वयमेव प्रायश्चित्त-दुःस्वप्नादि प्रशमकत्वेनावश्यकरणी. यात्वात् यैस्ते तथा ' सिरसा कंठे मालकडा' शिरसि कण्ठेच मालकरा:-कृत. मालाः धृतमाला इत्यर्थः आविद्धमणिसुवर्णाः ? इत्यादि विशेषणविशिष्टा निर्गच्छन्ति ? किमर्थ नगराह बहिर्गच्छन्तीति भावः । ' एवं संपेहेइ, संपेहिता, कंचुइजपुरिसं सहावेइ सदाचित्ता एवं क्यासी' एवम् उपर्युक्तरीत्या जमालि: संपक्ष ने विचारयति, संप्रेक्ष्य विचार्य कन्चुकिपुरुषम् अन्तःपुरनिवासिनं पुरुषविशेष शब्दयति-आह्वयति, शब्दयित्वा एवं वक्ष्यमाणपकारेण अबादीत 'किणं देवाणुप्पिया ! अज्ज खत्तिय कुडग्गामे नपरे इंदमहेइवा जान निग्ग औपपातिक मूत्रके पूर्वार्धमे ३८वे सूत्र में कहे अनुसार "कृतकौतुक मंगल प्रायश्चित्ताः' मषीतिलक आदिरूप कौतुक और अक्षतादिरूप मंगलको जो कि दुःस्वप्न आदिके प्रशमक होने से अवश्यकरणीयरूप कहे गये हैं करके तथा 'सिरसा कंटे मालकडा' मस्तक और गलेमें मालाओंको धारण करके " आविद्धमणिप्लुवर्णाः" तथा मणिभूषित सुवर्णहारोंको पहिर करके जा रहे हैं। अर्थात् ये सबके सब किस कारण नगरसे बाहर निकल रहे हैं ? ' एवं संपेहेह 'ऐसा उस क्षत्रियकुमार जमालिने विचार किया. (संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेइ') विचार करने के बाद फिर उसने कंचुको पुरुषको अर्थात्-अन्तःपुर निवासीजन को बुलाया ? 'सदा. वित्ता एवं वयानी' बुला करके उससे उसने ऐसा कहा-'किणं देवाणुप्पिया? अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहेहवा, जाव निग्गच्छंति' ४शने, “जहा उबवाइए " तथा मो५५ाति स्ना पूर्वाध। 3. मां सूत्रा नुसार “कृतकौतुरुमंगलप्रायश्चित्ताः" भषीति मा३ि५ौतुर भने सक्षत આદિ રૂપ મંગળ કરીને (આ બન્ને વિધિ દુઃસ્વમ આદિની પ્રશમક હોવાથી अवश्य ४२१॥ याय मनाय छे), तथा “सिरसा कंठे मालका" भरत भने म भाजाया घार शने, “ आविद्धमणिसुवर्णा" तथा भलि. જડિત સુવર્ણ હારને ધારણ કરીને જઈ રહ્યા છે? કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે , A win ४२नारनी ५२ ४७ २द्या छ ? "एवं संपेहेड" क्षत्रियभार समाविना भनमा से प्रा२ने विया२ माव्या. “संहिता कंचइज्जपुरिसं सहावेइ” मा प्रमाणे विया२ माथी तो युद्धीनने (सन्त पु२ निवासी ना२ने) मासाव्या. “सहवित्ता एवं वयासी' भने તેણે તેને આ તેમણે પૂછયું श्री. भगवती सूत्र : ८
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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