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________________ ૬ भगवतीसुत्रे निरन्तरमपि ज्योतिष्काच्यवन्ति एवं यावत् वैमानिका अपि ।। सू० २ || ? टीका- 'संतरं भंते ! नेरइया उन्नति, निरंतरं नेरइया उन्हंति ? ' हे भदन्त ! सान्तरम् अन्तरेण व्यवधानेन सहितं यथा स्यात्तथेति सान्तरं समयादि कालापेक्षया सविच्छेदम् उद्वर्तनाक्रियाविशेषणमेतत्, तथा च व्यवधानपूर्वकं नैरयिका उद्वर्तन्ते निस्सरन्ति किम् ? किंवा निरन्तरं विच्छेदरहितं सततं भी जानना चाहिये । ( संतरं भंते! जोइसिया चयंति पुच्छा ) हे भदन्त ! ज्योतिषिक देव सान्तर निकलते हैं या निरंतर निकलते हैं ? (गंगेया) हे गांगेय ! ( संतरंपि जोइसिया चयंति, एवं जाव वेमाणिया fa) ज्योतिषिक देव सान्तर भी निकलते हैं और निरंतर भी निकलते हैं । इसी तरह का कथन यावत् वैमानिकों तक में जानना चाहिये ! टीकार्थ - उत्पन्न जीवों की ही उद्वर्तना होती है इसलिये सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इसी उद्वर्तना की प्ररूपणा की है - इसमें गांगेयने प्रभु से ऐसा पूछा है - ( संतरं भंते! नेरड्या उच्चति, निरंतरं नेरड्या उच्च इंति ) समयादिरूप काल की अपेक्षा लेकर जिस निष्क्रमण में व्यवधान अन्तराल होता है - वह निष्क्रमण सान्तर है और जिसमें ऐसा व्यवधान नहीं होता है यह निष्क्रमण निरन्तर है। सान्तर और निरन्तर ये दोनों frostray किया विशेषण हैं। तात्पर्य पूछने का ऐसा है कि नरक से नारक जीव जो निकलते हैं वे क्या वहां से विना काल के व्यवधान के निकलते हैं या उनके निकलने में काल का व्यवधान भी समन्धुं (स ंतर भंते! जोइसिया चयति पुच्छा ) हे लहन्त ! ज्योतिषि हेवे। सान्तर भ्यवे (नीपुणे ) हे हे निरंतर थवे ( नीउणे ) हे ! ( गंगेया ! ) हेांगेय ! सतरपि जोइसिया चयंति, निरंतरपि चयंति एवं जाव वेमाणिया वि ) योतिषि देवो सान्तर पशु न्यवे छे भने निरंतर पशु स्यवे छे. એજ પ્રકારનું કથન વૈમાનિક પન્તના જીવેાના ચ્યવન વિષે પણ સમજવું. ટીકા”—જે જીવે ઉત્પન્ન થાય છે તેમની ઉદ્ધૃતના ( તે ગતિમાંથી નીકળવાની ક્રિયા) પણ થાય જ છે. તેથી ઉત્પત્તિનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્ર. કાર તેમની ઉદ્ધૃતનાનુ નિરૂપણ કરે છે—આ વિષયને અનુલક્ષીને ગાંગેય અણુ. और महावीर अलुने पूछे छे है.... ( स ंतरं भंते ! नेरइया ऊति, निरंतर नेरइया उबट्टति ? ) हे लहन्त ! नर माथी ले नाव न કાળના વ્યવધાન સહિત નીકળે છે કે કાળના વ્યવધાન વિના નીકળે છે ? ते शु શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૮
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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