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________________ र भगरतीसूत्रे नातिनिकटे अदूरमत्यासन्ने उचितस्थाने इत्यर्थः स्थित्वा उपविश्य श्रमणं भगवन्तं महावीरम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-'संतरं भंते ! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरइया उववज्जति ?' हे भदन्त ! किम् सान्तरम् अन्तरेण व्यवधानेन सहितं यथा स्यात् तथा सान्तरम् उत्पत्ति क्रियाविशेषणम् , समयादिकालापेक्षया सविच्छेद सविरहं नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? उत्पत्तिं लभन्ते ? किम्बा निरन्तरं नास्ति अन्तरं व्यवधानं यस्मिन् कर्मणि तत् यथास्यात्तथा, समयादिकालापेक्षया विच्छेदरहितं नैरयिका उपपद्यन्ते? इति प्रश्नः, तत्र चैकेन्द्रियाणामनुसमयं सततमविच्छेदेनोत्पादात् निरन्तरत्वम् , अन्येषां तूत्पादविरहस्यापि भावात् सान्तरत्वं निरन्तरत्वं-चावसेयमित्यभिप्रायेण भगवानाह-'गंगेया ! संतरंपि नेरइया उववज्जंति, निरंतरपि नेरइया उववज्जति' हे गाङ्गेय ! नैरयिकाः सान्तरमपि समयादिकालापेक्षया सविच्छेदमपि उपपद्यन्ते जायन्ते, अथ च निरन्तरमपि सततं विच्छेदरहितमपि वान् महावीर के पास यथोचित स्थान पर ठहर कर फिर उन्हों ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहा-पूछा-(संतरं भंते ! नेरड्या उववज्जंति, निरंतरं नेरक्या उववज्जति) हे भदंत ! नैरयिक सांतर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? जिस उत्पत्ति में समयादिकरूप काल का व्यवधान होता है-वह उत्पत्ति सान्तर, और जिसमें ऐसा व्यवधान नहीं होता है वह निरन्तर उत्पत्ति कहलाती है। सान्तर और निरन्तर ये दोनों उत्पत्तिरूप क्रिया के विशेषण हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गंगेया! संतरंपि नेरइया उववज्जति, निरंतरं पि नेरड्या उववज्जति ) हे गाङ्गेय ! नैरयिक समयादिरूप काल के व्यवधान से भी उत्पन्न होते हैं और विना काल के व्यवधान से भी उत्पन्न होते हैं। નહીં અને બહુ સમીપ પણ નહીં એવા ઉચિત સ્થાને ભીને તેમણે શ્રમણ भगवान महावीरने ५७घु-(संतर भंते ! नेरइया उववजाति, निरंतर नेरइया उववज ति?)सन्त ! नार? सान्त२ न याय छ निरत२ उत्पन्न થાય છે? (જે ઉત્પત્તિમાં સમયાદિક રૂપ કાળનું વ્યવધાન (આંતર) પડે છે. તે ઉત્પત્તિને સાન્તર ઉત્પત્તિ કહે છે. જે ઉત્પત્તિમાં એવું વ્યવધાન (मांत) ५ नथी, ते उत्पत्तिन निरन्तर ( तार ) उत्पत्ति छ.) 'मान्तर ' मने नि२.२' मा भन्ने यही उत्पत्ति३५ डियाना विशेष । छ. महावीर प्रभुन। उत्तर-(गंगेया ! संतरपि नेरड्या उववज्जति, निर. तरपि नेरइया उववज्जति) 3 inय ! ना२। समयादि ३५ जना व्यqધાનથી (આંતરાથી) પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને કાળના વ્યવધાન વિના પણ श्री. भगवती सूत्र : ८
SR No.006322
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 08 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages685
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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