________________
भगवतीस्त्रे बध्नाति, सादिरनादिः सपर्यवसितोऽपर्यवसितश्च पूर्व प्ररूपित एवं । गौतमः पृच्छति'तं भंते ! कि देसेणं देसं बंधइ ? ' हे भदन्त ! तत् ऐर्यापथिकं कर्म किं देशेनजीवदेशेन जीवस्यैकदेशेनेत्यर्थः, देश-कर्मदेशं काशमित्यर्थः बध्नाति ? 'देसेणं सव्वं बंधइ ' किं वा देशेन जीवस्णंशेन सर्व समग्रं कर्म बध्नाति ? ' सव्वेणं देस बंधइ' किंवा सर्वेण सर्वात्मना देशं कमीशं बध्नाति ? ' सव्वेणं सव्वं बंधइ ?' किं सर्वेण सर्व सर्वात्मना समनं कर्म बध्नाति ? इत्यादिरीत्या चतुर्भया प्रश्ना, तत्र जीवदेशेन कर्मणो देशः, सर्व वा कर्म न बध्यते, एवं जीवसर्वात्मना वा कर्मणो देशो न बध्यते, अपितु सर्वात्मना जीवेन सर्वमेव कर्म बध्यते जीवस्य तथा स्वभावत्वादित्यभिप्रायेण भगवानाह-'गोयमा ! णो देसेणं देसं बंधइ, णो देसेणं सव्वं बंधइ, णो सम्वेणं देसं बंधइ, सम्वेण मव्वं बंधइ ' हे गौतम ! नो देशेन बात इन सूत्रपदों द्वारा प्रकट की गई है। अब गौतमस्वामी प्रभु से (तं भंते ! किं देसेणं देसं बंधइ ) इत्यादि बात पूछते हैं-इसमें ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! जीव जो ऐपिधिक कर्म को बांधता है सो वह अपने एक देश से उस ऐपिथिक कर्म के एक देश को बांधता है ? या ( देसेणं सव्वं बंधइ) या अपने एकदेशसे उस समस्त ऐपिथिक कर्म को बांधता है ? या (सव्वेणं देसं बंधइ) अपने समस्तदेश से ऐपिथिकके अंश को बांधता है ? या (सव्वेणं सव्वं बधइ) अपने समस्तदेश से समस्त ऐर्यापथिक कर्माशों को बांधता है ! इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं ( गोयमा) हे गौतम ! (णो देसेणं देस बंधह, णो देसेणं सव्वं बंधइ, णो सम्वेणं देसंबंधइ, सम्वेण सव्वं बधइ) जो पूर्वोक्त रूपसे चतुर्भगी द्वारा प्रश्न किये गये हैं-उस विषय में समाधान ऐसा है कि जीव अपने समस्त देश से ऐयोपथिक कर्म को सम्पूर्ण रूप से बांधता
गोतम स्वाभाना प्रश्न-( त भंते ! कि देसेण देसं बधइ ? ) 3 मह. ત! જીવ જે ઐયંપથિક કર્મ બાંધે છે, તે શું પિતાના એક દેશથી તેના (भैया५थि भनी) से देशन मांधे छ ? ३ ( देसेण सव्वं बधद?) पोताना शिथी शुत समस्त प्रयापथि भने मधे छ ? (सव्वे ण देसं बधइ ? पोताना समस्त शिया औ५थि भना मशीने मांधे छ ? (सव्वे ण सव्व बधइ ?) पोताना समस्त शानी पर्या५थि: भांशान मांधे छ ? तना हत्त२ मा मडावीर प्रभु छ है-(गोयमा) 3 गौतम! (णो देसेण देस बंधइ, णो देसेणं सबबंधइ, णो सब्वेणं देस बंधइ सव्वेणं सव्वं बधइ) १ पाताना समस्त शाथी भापथि मन સંપૂર્ણ રૂપે બાંધે છે, તે તેના એક દેશથી (અંશથી) તે કર્મના એક અંશને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭