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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी०० ९ ३० ३१ सू० ४ अश्रुत्वा केवलीवर्णनम् ७१३ 9 ज्यां दद्याद् वा ? मुण्डयेद वा १ शिरोलञ्चनतो मुण्डनं कुर्याद् वा ? भगवानाह -' णो इणडे समट्टे, उवदेसं पुण करेज्जा' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, स खलु अश्रुत्वा केवलिशिष्येभ्यः प्रव्रज्यां न दातुमर्हेत्, न वा शिरोलुश्चनलक्षणं मुण्डनं कर्तुमर्हेतु, किन्तु उपदेशं पुनः कुर्यात् इति गौतमः पृच्छति' से णं भंते ! सिज्झइ जाव अंत करेइ ? ' हे भदन्त ! स खलु केवली किं सिध्यति यावत्बुध्यते, मुच्यते परिनिर्माति सर्वदुखानामन्तं करोति ? भगवानाह - 'हंता, सिज्झइ, जाव अंत करेइ ' हे गौतम ! हन्त सत्यम् स केवली सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुखानामन्तं करोति चेति ॥ सू० ४ ॥ यावत् दीक्षा, और शिरोलुश्चन करके उन्हें मुण्डित करने रूप मुंडन करना ये काम कर सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( णो इणट्ठे समट्ठे, उयदेसं पुण करेज्जा ) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् अश्रुत्वा केवली अपने शिष्यों के लिये न दीक्षा दे सकता है और उन्हें मुण्डित - केशलुञ्चनादिरूप से उनका मुण्डन कर सकता है । किन्तु वह उन्हें उपदेश कर सकता है उनसे अमुक के पास दीक्षा धारण करोऐसा उपदेश दे सकता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं - ( से णं भंते! सिज्झइ, जाव अंत करेइ ) हे भदन्त ! वह अश्रुत्वा केवली क्या सिद्ध होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है ? यहां यावत् शब्द से " बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति" इन क्रियापदों का ग्रहण किया गया है। इसके રૂપ મુંડન કરવાનું કાર્ય કરી શકે છે ? (રોહરણુ, સદેહેરકમુખવસ્ત્રિકા આદિ રૂપ દ્રવ્યલિંગ પેાતાના શિષ્યાને માટે આપવારૂપ દીક્ષાને પ્રત્રજ્યા કહે છે. શિરના વાળ હાથથી ખે'ચી કાઢવાની ક્રિયાને મુંડન ક્રિયા કહે છે. ) महावीर अलुना उत्तर - ( णो इणट्ठे भ्रमट्ठे, उबदेसं पुण करेज्जा ) डे ગૌતમ ! આ વાત ખરાખર નથી. એટલે કે અશ્રુત્વા કેવલી પોતાના શિષ્યાને દીક્ષા દઈ શકતા નથી અને તેમના કેશવુંચનનું કા પણ કરી શકતા નથી. પરન્તુ તે તેમને ઉપદેશ દઈ શકે છે-અમુક વ્યક્તિ પાસે દીક્ષા અંગીકાર કર વાના ઉપદેશ તે તેમને આપી શકે છે. गौतम स्वामीने प्रश्न - ( से णं भंते ! सिज्झइ, जाव अंत करेइ ? ) हे लहन्त ! ते अश्रुत्वा देवसी शु सिद्ध थाय छे, ( बुध्यते, मुच्यते, परि निति ) युद्ध थाय छे, भुक्त थाय छे, समस्त भेना संपूयु क्षय रे छे અને સમસ્ત દુઃખાના અંત કરે છે ? भ १० શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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